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________________ 173 करके, शेष ग्यारह अर्थों को छोड़ देता है।417 आलापपद्धति में भी लगभग इसी का अनुसरण करके कहा गया - जो एकार्थ पर आरूढ़ होकर अन्य अर्थों को गौण कर देता है, वही समभिरूढ़ नय है। 18 माइल्लधवल ने समभिरूढ़ नय के दो अर्थ किये हैं। यथा - ___ 1. अनेकार्थ को छोड़कर किसी एक अर्थ में प्रधानता से रूढ़ हो जाना जैसे 'गौ' शब्द गाय के अर्थ में रूढ़ है। 2. शब्दभेद से अर्थभेद को मान्यता देना – जैसे, इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ।419 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में यशोविजयजी ने भिन्न-भिन्न शब्दों के अर्थ को भी भिन्न-भिन्न माननेवाले नय को समभिरूढ़ नय कहा है। उन्होंने भी पूर्वाचार्यों के कथन को महत्त्व देते हुए शब्द भेद से अर्थ भेद करनेवाले नय को ही समभिरूढ़ कहा है।120 जैसे 'घट' शब्द और ‘पट' शब्द पृथक्-पृथक् होने से घट शब्द का वाच्यार्थ और पट शब्द के वाच्यार्थ पृथक्-पृथक् हैं। उसी प्रकार 'कुम्भ' शब्द भी घट शब्द से भिन्न होने से कुम्भ का वाच्यार्थ और घट का वाच्यार्थ भी एक नहीं हो सकता है। 'कुम्भ' कुम्भ है और 'घट' घट है। शब्दों में भेद होने पर अनेक वाच्यार्थ भेद होना निश्चित है- इसे ही समभिरूढ़ नय कहते हैं। लोक व्यवहार में घट और कुम्भ शब्द को एकार्थ के माना जाता है। यशोविजयजी इस एकार्थक प्रतीति का कारण शब्दनयादि की वासना मानते हैं।421 क्योंकि शब्दनय, ऋजुसूत्रनय, व्यवहारनय के द्वारा घट, कुम्भ आदि शब्दों को एकार्थक मानने से लोगों के मन में यही अर्थ रूढ़ हो जाता है। 417 यतो नानार्थान् समतीत्यैकमर्थमाभि ...... तत्त्वार्थवार्तिक, 1/33 पर वृत्ति, 30 418 समभिरूढ़ो यथा – गौः पशुः ........ .. आलापपद्धति, सू. 78 41 सद्दारूढ़ो अत्थो अत्थारूढ़ो तहेव पुन सद्दो .... नयचक्र, गा. 214 (माइल्लधवलकृत) 420-समभिरूढ़ विभिन्न अर्थक, कहइ भिन्न ज शब्द रे ............... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/14 421 एकार्थपणुं प्रसिद्ध छई ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.6/14 का टब्बा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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