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7. एवंभूतनय :
न्यायविशारद यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में नयों के वर्णन के क्रम में एवंभूतनय को जिसका विषय अत्यन्त गंभीर और कठिन है, सरल मरूगुर्जर भाषा में विश्लेषित करने का प्रयत्न किया है। एवं-इस प्रकार, भूत-तुल्य। जो पदार्थ अपनी व्युत्पत्ति के अर्थ के समान तुल्य क्रिया करता है, उसी क्रिया में उसके परिणाम हो, उसी में लगा हो, उसे एवंभूत कहते हैं। इस एवंभूत रूप पदार्थ को ही प्रधानता देनेवाली दृष्टि एवंभूतनय है। जैसे घट पानी से भरा हो, घट-घट शब्द कर रहा हो, उसी समय एवंभूतनय उसे घट कहेगा। घर में पड़े रिक्त घट को घट नहीं कहेगा।422
वस्तु स्वरूप के तल तक पहुंचने वाली बुद्धि विचार करती है कि जब कालभेद से, व्युत्पत्ति भेद से अर्थ भेद हो सकता है, तो व्युत्पत्ति सिद्ध क्रिया के भेद से भी अर्थभेद मानना चाहिए। समभिरूढ़नय व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद तक ही सीमित रहता है। जबकि एवंभूतनय व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ जब उस वस्तु में घटित होता है, तभी उस शब्द का वह अर्थ मानता है।
जो वस्तु जिस पर्याय से युक्त हो, उस वस्तु का उस पर्याय के रूप में परिणमितार्थ को ही निश्चित करनेवाला एवंभूतनय है।23 आशय यह है कि जिस शब्द का जो क्रियार्थ है, उस क्रिया के परिणमनकाल में ही उसके लिए उस शब्द का प्रयोग करना एवंभूतनय का मुख्य लक्ष्य है। जैसे 'इन्द्र' का अर्थ है शोभित होना। इस व्युत्पत्ति सिद्धक्रिया के अर्थ के अनुसार जिस समय इन्द्र इन्द्रासन पर शोभित हो रहे हों, उसी समय उन्हें 'इन्द्र' के नाम से सम्बोधित करना चाहिए। परन्तु जिस
422 नयवाद, – मुनि फूलचन्द्र 'श्रमण', पृ. 263 429 अ) येनात्मा भतस्तेनैवाध्यवसाययतीति एवंभूतः ................................... तत्त्वार्थसूत्र, सवाथासाद्ध, 1/33 ब) एकस्थापि ध्वनेवचियं सदा तन्नोपपद्यते
............ स्याद्वादमंजरी, पृ. 247
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