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________________ पदार्थ हैं। अधर्म, आकाश और काल 1756 इस प्रकार द्रव्य के कुल छह भेद हो जाते हैं जीव, पुद्गल, धर्म, — इन छह द्रव्यों में से प्रथम पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं और काल अस्तिकाय नहीं है। जैन दार्शनिकों ने काल के अस्तित्व को तो माना है, किन्तु उसके पृथक् कायत्व को स्वीकार नहीं किया है। इसी कारण से काल को अनस्तिकाय कहा गया है । 756 भगवतीसूत्र, 2/10/117 757 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा Jain Education International 287 अस्तिकाय का तात्पर्य 'अस्ति' और 'काय' इन दोनों शब्दों से अस्तिकाय बनता है । 'अस्ति' शब्द का अर्थ है सत्ता या अस्तित्व तथा 'काय' शब्द का अर्थ है शरीर अर्थात् जो शरीर रूप से अस्तित्ववाला है, वह अस्तिकाय है। यहां 'काय' (शरीर) शब्द का प्रयोग भौतिक शरीर के अर्थ में न होकर लाक्षणिक अर्थ में हुआ है। पंचास्तिकाय की टीका में कायत्व शब्द का अर्थ सावयवत्व किया गया है । यथा - "कायत्वभाख्यं सावयवत्वम्” । इसका तात्पर्य है जो द्रव्य अवयवों से युक्त है, वे अस्तिकाय हैं तथा जो निरवयवी हैं, वे अनस्तिकाय है । संक्षेप में जिसमें विभिन्न अंग, अंश या हिस्से हैं, वे अस्तिकाय है | 757 धर्म और अधर्म अविभाज्य, अखण्ड एवं लोकव्यापी द्रव्य होने पर भी क्षेत्र की दृष्टि से इनमें बौद्धिक स्तर पर अवयव या विभाग की कल्पना की जा सकती है। लोकालोकव्यापी आकाश में भी क्षेत्र की अपेक्षा से ही विभाग की कल्पना हो सकती है। जैसे भारत एक अखण्ड देश होने पर भी राज्यव्यवस्था के लिए क्षेत्र की दृष्टि से प्रान्तों की कल्पना की जाती है। वास्तविक दृष्टि से तो ये प्रान्त भारत से भिन्न टुकड़े-टुकड़े के रूप में नहीं हैं। अखण्ड भारत के ही अविभाज्य हिस्से हैं। इन सभी का सम्मिलित रूप ही भारत है । उसी प्रकार धर्मास्तिकाय आदि में भी वैचारिक स्तर पर ही विभागों की या अवयवों की कल्पना की गई है। परमाणु स्वयं निरंश या निरवयव होने पर भी स्कन्ध बनकर कायत्व या सावयत्व को धारण कर लेता है। डॉ. सागरमल जैन, पृ. 14 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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