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जैन दार्शनिकों ने अस्तिकाय का अर्थ बहुप्रदेशत्व भी माना है । ' अस्ति' का अर्थ है विद्यमानता और काय का अर्थ है प्रदेशों का समूह। जो अनेक प्रदेशों का समूह होता है, वह अस्तिकाय कहलाता है। 78 एक पुद्गल परमाणु आकाश के जितने स्थान को घेरता है, उसे प्रदेश कहा जाता है। 759 यह एक प्रदेश का परिमाण है । इस प्रकार अनेक प्रदेश जिस द्रव्य में पाये जाते हैं, वह अस्तिकाय है । धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव अस्तिकाय हैं। धर्म, अधर्म और आकाश का बहुप्रदेशत्व क्षेत्र की अपेक्षा से है न कि द्रव्य की अपेक्षा से । पुद्गल द्रव्य का बहुप्रदेशत्व परमाणु की अपेक्षा न होकर स्कन्ध की अपेक्षा से है । पुनः जिस आकाश प्रदेश में एक पुद्गल परमाणु रहता है, उसी में अनन्त पुद्गल परमाणु समाहित हो जाने से परमाणु को भी अस्तिकाय कहा जा सकता है। 70
जहाँ तक कालद्रव्य का प्रश्न है, वह अनेक प्रदेशों का अखण्ड द्रव्य नहीं है। किन्तु काल के अनेक स्वतन्त्र प्रदेश हैं । वे परस्पर निरपेक्ष हैं । उनमें स्कन्ध या एक अवयवी की कल्पना नहीं की जा सकती है। लोकाश के प्रत्येक प्रदेश पर काला स्थित हैं इस प्रकार कालद्रव्य एक द्रव्य न होकर अनेक स्वतन्त्र द्रव्य रूप होने से अनस्तिकाय है अर्थात् प्रदेशों का समूह नहीं है ।
द्रव्य के भेद - प्रभेद का स्पष्ट विवरण इस प्रकार है
(1) चेतना लक्षण के आधार पर -
द्रव्य
जीव
धर्म
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अधर्म
758 संति जदो तेणेदे, अत्थिति भणति जिणवरा जम्हा । काया इव बहुदेसा, तम्हा काया य अत्थिकाया । ।
759 जावदियं आयासं, अविभागी पुग्गलाणु वट्टद्धं । त खुं पदेसं जाणे, सव्वाणुद्वाणदाणरिहं । ।
760 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा
अजीव
आकाश
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पुद्गल
द्रव्यसंग्रह, 24
288
काल
27
डॉ. सागरमल जैन, पृ. 14
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