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द्रव्य के प्रकार -
उपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के नौवी ढाल में द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप लक्षण की विस्तार से व्याख्या करने के पश्चात् दसवीं ढाल में द्रव्य के प्रकारों के रूप में षड्द्रव्यों का विस्तृत प्रतिपादन किया है।
द्रव्य के कितने प्रकार हो सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर अनेक तरह से दिया जा सकता है। चैतन्यधर्म की अपेक्षा से, रूपी गुण की अपेक्षा से, अस्तिकाय की अपेक्षा से इत्यादि। सत्ता की अपेक्षा से द्रव्य का एक ही प्रकार है। जो सत् है, वही द्रव्य है और वही तत्त्व है। सत्ता सामान्य की अपेक्षा से जड़ और चेतन, एक
और अनेक, सामान्य और विशेष, गुण और पर्याय सब एक हैं। चूंकि संग्रहनय भेद के रहते हुए भी भेद को गौण करके अभेद का दर्शन करता है, अनेकता में एकता को देखता है। अतः इस संग्रहनय की दृष्टि से द्रव्य एक है।
द्वैतदृष्टि से या व्यवहारनय की अपेक्षा से संक्षेपतः द्रव्य के दो प्रकार होते हैं - जीव और अजीव ।'53 चैतन्य लक्षणवाले समस्त द्रव्य विशेष का समावेश जीवद्रव्य में तथा जिनमें चैतन्यलक्षण नहीं है, ऐसे सभी द्रव्यों का समावेश अजीवद्रव्य में हो जाता हैं।
जीव द्रव्य अरूपी है। अजीव द्रव्य रूपी और अरूपी के रूप से दो प्रकार के होते हैं। साधारणतया जिसका अनुभव ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से हो सकता है, वह रूपी कहलाता है। दूसरे शब्दों में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण इन चारों से जो युक्त है, वह रूपी है।54 पुद्गल रूपी है।55 जो ज्ञानेन्द्रियों का विषय नहीं बनते हैं, जिनका ज्ञान हमारी इन्द्रियों के सामर्थ्य से बाहर है तथा किसी असाधारण शक्ति से ही जिनकी साक्षात् अनुभूति हो सकती है, वे अरूपी पदार्थ हैं। अरूपी पदार्थ स्पर्श आदि गुणों से रहित होते हैं। धर्म, अधर्म और आकाश -ये तीन अस्तिकाय और काल अरूपी
753 विसेसिए जीवदव्वे अजीवदव्वे य - 754 स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त : पुदगला 755 रूपिण : पुद्गला – तत्त्वार्थसूत्र, 5/4
अनुयोगद्वार, सू. 123 वही, 5/23
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