SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 491
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 471 गुण है तथा क्रमभावी धर्म पर्याय हैं। इस प्रकार लक्षण रूप भेद होने पर भी वस्तु स्वरूप से गुण और गुणी में अभेद हैं। 1379 जो गुण के प्रदेश हैं, वे ही गुणी के प्रदेश है और जो गुणी के प्रदेश हैं वे ही गुण के प्रदेश है।1380 'द्रव्य' और 'गुण' ऐसी संज्ञा की अपेक्षा से भेद परिलक्षित होने पर भी द्रव्य-गुण में सत्तागत भेद नहीं है। यदि द्रव्य और गुण को एकान्त भिन्न माना जाय तो जैन मतानुसार द्रव्य के अभाव का दोष आता है।1381 गुण द्रव्य के आश्रित होते हैं। यदि द्रव्य गुण से सर्वथा भिन्न है तो गुण किसी और के आश्रित होंगे और वह भी यदि गुण से एकांत भिन्न होगा तो द्रव्य और गुण दोनों असम्बन्धित होंगे। पुनः एकान्त भेदवाद को स्वीकार करने पर बिना गुणों के द्रव्य की शून्य तथा निराधार होने से गुणों की शून्यता का प्रसंग उपस्थित होगा। जैनदर्शन कार्य-कारण के विषय में सतासत्कार्यवादी है। कारण में कार्य को सर्वथा असत् मानने पर खरविषाण की तरह कारण से कार्य की उत्पत्ति कदापि नहीं हो सकती है।1382 इसलिए द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से कारण में कार्य सत् और कारण से अभिन्न है। सांख्यदर्शन अभेदवाद का पोषक है। इस दर्शन के अभिमत में कार्य-कारण में तथा द्रव्य, गुण एवं पर्यायों में पूर्वापरभाव नहीं होता है। द्रव्य अपने गुण–पर्यायों के साथ ही उत्पन्न होता है। यद्यपि मृत्तिका से घटपर्याय बाद में उत्पन्न होता है परन्तु पिंडाकार रूप पर्याय और श्यामता रूप गुण तो सदा मृद्रव्य के साथ ही होते हैं। 1383 इसलिए मिट्टी और उसके आकार और गुणों में कोई पूर्वापरभाव दृष्टिगोचर 1379 द्रव्यं च लक्ष्यलक्षण भावादिभ्य ......... भूतमेवेति मंतव्यम् .... – पंचास्तिकाय, गा.9 की टीका 1380 प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति, गा. 98 1381 णिच्चं गुणगुणिभेये दव्वाभावं अणंतियं अहवा. .............. माइल्लधवलकृत नयचक्र, गा. 47 का पूर्वार्ध 1382 जो अभेद नहीं एहोनो जी, तो कारय किम होइ ? अछती वस्तु न नीपजइजी, शशविषाण परि जोई। .............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/7 1383 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 145 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy