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नहीं होने से कार्य-कारण में पहले से ही विद्यमान रहता है अर्थात् कारण में कार्य सत् है। कार्य अभिव्यक्त कारण है।1384 इसलिए कार्य-कारण में सदा भेद है। कार्य-कारण भाव में दोनों का सह अस्तित्व भी अपेक्षाभेद से जैनों का मान्य है।
शांकर वेदान्त दर्शन -
ब्रह्माद्वैतवाद सर्वथा अभेदवादी दर्शन है। सृष्टि में एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है, अन्य सब कुछ मिथ्या है। "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" -यह इस दर्शन की प्रसिद्ध उक्ति है। संसार ब्रह्म की ही पर्याय है। परन्तु लोगों की दृष्टि में ब्रह्म दिखाई नहीं देकर उसकी पर्याय (संसार) ही दिखाई देता है।1385 जबकि संसार प्रतीति का विषय होने से मिथ्या है।
यह दर्शन भी सांख्य की तरह सत्कार्यवाद को मानता है, अर्थात् कार्य-कारण में पहले से ही विद्यमान रहता है। अतः कार्यकारण में अभिन्नता भी है। अतः द्रव्य गुण और पर्याय अभिन्न है।
शांकर वेदान्त मूलतः अद्वैत्वादी दर्शन है और अद्वैत्वादी दर्शन होने से द्रव्य से पृथक् न कोई गुण है और न पर्याय है। व्यवहार की अपेक्षा चाहे हम द्रव्य के गुण एवं पर्याय की कल्पना करें। लेकिन उसके अनुसार द्रव्य ही सत् है तथा गुण और पर्याय की द्रव्य से पृथक् कोई वास्तविक सत्ता है ही नहीं। पारस्परिक सम्बन्ध दो स्वतन्त्र सत्ता में ही हो सकता है। यदि द्रव्य से पृथक् गुण और पर्याय की सत्ता ही नहीं हो तो उनमें पारस्परिक सम्बन्ध का प्रश्न ही खड़ा नहीं हो सकता है।
जैनदर्शन को द्रव्य-गुण-पर्याय में सर्वथा भेद की तरह सर्वथा अभेद भी मान्य नहीं है। अपितु कथंचित् अभेद का समर्थक है। जैनमतानुसार द्रव्य आश्रयदाता है और गुण द्रव्य के आश्रित है। इनमें परस्पर आधारआधेय सम्बन्ध है। पुनः सत्ता की
1384 भारतीय दर्शन, पृ. 175 1385 सर्व वै खल्विंद ..... तत्पश्यति कश्चन - छान्दोग्य, 3.14
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