________________
470
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में मान्य किया है। उनके अनुसार गुण की पर्याय नहीं होती है, गुण स्वयं पर्याय रूप ही है।
द्रव्य, गुण और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर अन्य दर्शनों की दृष्टि और जैनदृष्टि में अंतर -
नैयायिक और वैशेषिक दर्शन भेदवादी हैं। वे कार्य-कारण में गुण-गुणी में और द्रव्य–पर्याय (कर्म) में एकान्त भेद को स्वीकार करते हैं। उनकी मान्यतानुसार द्रव्य प्रथम समय में निर्गुण और निष्क्रिय होता है।1377 द्रव्य आधार है और गुण आधेय हैं। आधारभूत द्रव्य के उत्पन्न होने के पश्चात् द्वितीय समय में 'द्रव्य से अत्यन्त भिन्न गुण और पर्याय (कार्य) उत्पन्न होते हैं। समवाय सम्बन्ध नामक पदार्थ गुण और गुणी (द्रव्य) को जोड़ने का कार्य करता है। गुण और पर्याय (कर्म) द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहते हैं। द्रव्य-गुण-पर्याय की उत्पत्ति युगपत् मान लेने पर कार्य-कारणभाव घटित नहीं होगा। इसका कारण यह है कि कारण सदा पूर्वसमयवर्ती होता है और कार्य सदा पश्चातसमयवर्ती होता है।1378 जैसे मिट्टी-घट
और तन्तु-पट में पूर्वापर समयवर्तिता होने पर ही कार्य-कारणभाव घटित होगा। कारणकाल में कार्य अविद्यमान रहता है तथा बाद में सामग्री का योग प्राप्त होने पर कार्य उत्पन्न होता है। यदि मिट्टी में घट रूप कार्य सत् है तो फिर उसे उत्पन्न करने की और दंडादि सामग्रियों की आवश्यकता क्यों होती है ? इसलिए कारण में कार्य असत् है। इस प्रकार नैयायिक वैशेषिक दर्शन असत्कार्यवाद के समर्थक है और इसी आधार पर द्रव्य और गुण में या द्रव्य और कर्म में भेद सिद्ध करते है।
जैनदर्शन द्रव्य-गुण-पर्याय में एकान्त भिन्नता को अस्वीकार करके कथंचित् भिन्नता का समर्थन करता है। द्रव्य गुण और पर्यायोंवाला है। द्रव्य के सहभावीधर्म
1377 उत्पन्नक्षणावच्छिन्नं द्रव्यं निर्गुणं निष्क्रिय तिष्टति - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, विवेचक-धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 144 1378 कार्यनियतपूर्ववृत्ति कारणम् - वही, पृ. 144
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org