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हैं। परन्तु द्रव्य की परिभाषा “गुणाणमासओ दव्वं में पर्याय का उल्लेख ही नहीं किया है। 1371 उमास्वाति1372 और कुन्दकुन्द373 ने द्रव्य के लक्षण में गुण और पर्याय दोनों को सम्मिलित करके गुण और पर्याय में भेद को माना है। सर्वार्थसिद्धिकार ने भी 'अन्वयिनो गुणाः व्यतिरेकिनः पर्यायाः' कहकर गुण और पर्याय में भेद स्वीकार किया है।1374 जबकि आचार्य अकलंक गुण और पर्याय में भेदाभेद को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार 'गुण' जैनमत की संज्ञा नहीं है। गुणसंज्ञा अन्यमत वालों की है। जैनमत में तो द्रव्य और पर्याय ये दो ही प्रसिद्ध हैं। इसलिए गुणार्थिक नामक नय भी नहीं है। :... वैशेषिक दर्शन गुण को द्रव्य से एकान्त भिन्न मानते हैं। परन्तु द्रव्य से भिन्न कोई गुण नामक पदार्थ उपलब्ध नहीं होता है। एतदर्थ मतान्तर की निवृत्ति के लिए द्रव्य के लक्षण में पर्याय के साथ गुण यह विशेषण दिया है।1375
पुद्गल द्रव्य है। स्पर्श, रूपादि उसके गुण है। स्निग्ध, कर्कश, नील, पीला आदि पुद्गलद्रव्य की रूप अथवा स्पर्श रूप पर्यायें हैं। एक ही वस्तु जब स्पर्शेन्द्रिय का विषय बनती है तब स्पर्श बन जाती है और वही वस्तु जब चक्षुरिन्द्रिय का विषय बनती है तो रूप बन जाती है। यदि स्पर्शादि गुणों से उसके स्निग्ध आदि पर्यायें भिन्न होती तो संभिन्नस्रोतोपलब्धि के समय एक ही इन्द्रिय से संपूर्ण विषयों का ज्ञान कैसे संभव हो पाता है तथा एकेन्द्रिय आदि जीव अपना व्यवहार कैसे चलाते हैं ? अतः गुण और पर्याय को व्यवहार के स्तर पर भिन्न माना जा सकता है। निश्चयतः वे दोनों अभिन्न हैं।1376 ऐसा आगमिक मत ही यशोविजयजी ने प्रस्तुत कृति
1371 गुणाणमासओ दवं एगदव्वस्स्यिा गुणा।
लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवो - उत्तराध्ययनसूत्र, 28/6 1372 गुणपर्यायवत् द्रव्यम् - तत्त्वार्थसूत्र, 5/38 1373 दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्ययधुवसंजुतं ।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू । ...........पंचास्तिकाय, गा. 10 1374 सर्वार्थसिद्धि, सूत्र 28/600 1375 राजवार्तिक, सूत्र 5/38/2, 3, 4 1376 आर्हतीदृष्टि, समणी मंगलप्रज्ञा, पृ. 105
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