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यदि कोई दिगम्बर मत का अनुयायी ऐसा कहे कि पर्यायात्मक कार्य द्रव्य पर्याय और गुण-पर्याय के रूप में भिन्न-भिन्न है। मिट्टी से जो पिंड-स्थास-कोश आदि बनते हैं वे द्रव्यपर्याय है और रूप के श्याम, रक्त आदि गुणपर्याय हैं। इस प्रकार पर्याय रूप कार्य की द्विविधता होने से कारण की भी द्रव्य और गुण के रूप में द्विविधता स्वतः सिद्ध हो जाती है। अतः द्रव्य और गुण ये दो शक्तिरूप तत्त्व हैं।
ग्रन्थकार यशोविजयजी इस बात का निरसन करते हुए कहते हैं –कार्यभेद के सिद्ध होने पर ही कारण भेद सिद्ध होता है। द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय नामक कार्यभेद के सिद्ध होने पर ही द्रव्य-गुण नामक कारणभेद सिद्ध होगा। कार्य के भेद का निश्चित हुए बिना कारण के भेद मान्य नहीं होते हैं तथा कारणभेद को सिद्ध होने के लिए पहले कार्यभेद का सिद्ध होना जरूरी है। इस प्रकार दोनों अन्योन्य है। कार्यभेद और कारणभेद दोनों की सिद्धि एक दूसरे पर निर्भर होने से वस्तुस्थिति सिद्ध नहीं होती है। अतः यहाँ अन्योन्याश्रय दूषण लगता है।1389
इस प्रकार उपाध्याय यशोविजयजी भी सिद्धसेनदिवाकर का अनुसरण करते हुए गुण और पर्याय में अभेद का ही समर्थन किया है।
उल्लेखनीय है कि प्राचीन आगमों में विशेषता के अर्थ में 'गुण' शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। आचार्य मधुकरमुनिजी द्वारा संपादित उत्तराध्ययनसूत्र में लिखा है –“प्राचीन युग में द्रव्य और पर्याय, ये दो शब्द ही प्रचलित थे। गुण शब्द दार्शनिक युग में पर्याय से कुछ भिन्न अर्थ में प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है, कई आगम ग्रन्थों में गुण को पर्याय का ही एक भेद माना गया है, इसलिए कतिपय उत्तरवर्ती दार्शनिक विद्वानों ने गुण और पर्याय की अभिन्नता का समर्थन किया है। जो भी हो, उत्तराध्ययन में गुण का लक्षण पर्याय से पृथक् किया है।1370" जैसे जो किसी द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वे गुण हैं तथा द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित रहने वाले पर्याय
1369 जे माटिं-कार्यमांहि कारणशब्दनो प्रवेश छइ, तेणइ-कारणभेदइं कार्यभेद सिद्ध थाइ,
अनइं कार्यभेद सिद्ध थयो होइ, तो कारणभेद सिद्ध थाइ, ए अन्योन्याश्रय नामइं दूषण उपजइ ......
... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/13 का टब्बा 1370 उत्तराध्ययनसूत्र – सं. मधुकरमुनिजी, पृ. 468
................ द्रव
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