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'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की 17 वीं ढाल के अनुसार आपकी गुरू पंरपरा इस प्रकार है।
तपागच्छ में जगद्गुरू विरूद के धारक एवं अकबर प्रतिबोधक हीरसूरिजी के पाट पर पट्टप्रभावक विजयसेनसूरीश्वरजी नामक आचार्य हुए। उनके पाट पर अतिशयमहिमा वाले एवं निःस्पृह विजयदेवसूरीश्वरजी हुए और उनके पाट पर अग्रगण्य श्री विजयसिंहसूरीश्वर हुए। इस प्रकार यशस्वी आचार्यों की पाटपरंपरा बताने के बाद उपाध्यायजी ने हीरविजयसूरीश्वरजी से क्रमशः हुए उपाध्यायों की पाट परंपरा बताई है।
हीरविजयसूरीश्वर जी के शिष्यरत्न महोपाध्याय पदवी से विभूषित कल्याणविजयगणि हुए। आपके शिष्य महापंडित एवं सौभाग्यशाली लाभविजयगणि हुए। आपके शिष्य पंडित शिरोमणि जितविजयजी गणि हुए। उनके गुरूभ्राता ज्ञान, दर्शन, चारित्र के गुणों युक्त पंडित नयविजयजी थे। उन्हीं नयविजयजी की चरणसेवा और कृपा से स्वपर शास्त्रों में पारंगत महोपाध्याय यशोविजयजी हुए।
आनंदघनजी और यशोविजयजी का मिलन -
जैनशासन में आनंद धनजी का नाम योगीराज के रूप में विख्यात है। आनंदघनजी का मूल नाम लाभानंदजी था और संभवतः आप राजस्थान के हो सकते हैं। मस्त अवधूत के रूप में विचरनेवाले इस जैन साधु के विषय में अन्य कोई जानकारी नहीं मिलती है। हम ऐसा अनुमान लगा सकते हैं कि आनंद धनजी सं. 1650 से 1710 तक अवश्य विद्यमान रहे होंगे। इन्होंने 24 तीर्थंकरों के आत्मानुभूति
21 तपगच्छनंदन सुरतरू, प्रकटिओ हीरविजय सूरिंदो। सकल सूरिमां जे सोभागी, जिम तारामां चंदो रे || 17/1
तास पांटि विजयसेनसूरीसर, ज्ञान रयणनो दरियो। साहि सभामा जे जस पामिओ, विजवंत गुण भरियो।। 17/2 तास पाटि विजयदेवसूरीसर, महिमावंत निरीहो। तास पाटि विजयसिंहसूरीसर, सकलसूरियां लीहो।। 17/3 श्री कल्याणविजय बडवाचक, हीरविजय गुरू सीखो। उदयो जस गुण संतति गावइ, सुरकिन्नर निशदिशो रे।। 17/6 गुरूश्री लाभविजय वड पंडित, तास सीस सोभागी। श्रुत व्याकरणदिक बहुग्रन्थी, निव्यइ जस मति लागी।। 17/7 श्रीगुरू जितविजय तस सीसो, महिमावंत महंतो। श्रीनयविजय विबुध गुरूभ्राता, तास महा गुणवंतो रे।। 17/8 जस सेवा सुपसायइं सहणिं, चिंतामणि में लहिउं। तस गुण गाई शकुं किम सघला, गावानई गह गहियो रे।। 17/20
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