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से युक्त एवं भक्तिरस से ओतप्रोत स्तवनों की रचना की है जो आज भी जैनसंघ में परम भक्तिभाव से गाये जाते हैं। आपके कुछ पदरचनाएँ भी उपलब्ध हैं जिनमें अनुभवनिष्ठ आध्यात्मिक विचारों के दर्शन होते हैं।
योगीराज आनंदघनजी से यशोविजयजी कब और कैसे मिले ? इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। परन्तु इन दोनों के मिलने का निर्देश स्वयं यशोविजयजी ने 'आनंदधन अष्टपदी' में स्पष्ट रूप से किया है। यथा -
"जशविजय कहे सुनो हो आनंदधन, हम तुम मिले हुजुर
ओ री आज आनंद भयो, मेरे तेरो मुख नीरख नीरख आनंदधन के संग सुजस ही मिले जब, तब आनंद सम भयो सुजस" इसी प्रकार आनंदघनजी के एक पद में भी यशोविजयजी का संबोधन मिलता
आनंदधन कहे, जस सुनो भ्रात
यही मिले तो मेरा फेरा टले ......... यशोविजयजी ने 'आनंदघन अष्टपदी' में आनंदधनजी के प्रति गाढ़ प्रीति अभिव्यक्त की है। लोकनिंदा के प्रसंगों में आनंदधनजी तो अपने मस्ती में रहते ही थे। परन्तु यशोविजयजी भी उनके पक्ष में रहकर आनंदघनजी के प्रति अपने स्नेहभाव दर्शाते थे। आनंदधनजी के इस मस्ती का प्रभाव यशोविजयजी पर भी पड़ा और उनके संपर्क से यशोविजयजी को अध्यात्म साधना का अद्भुत मार्ग मिला। यशोविजयजी के पदों में परिलक्षित आत्मानुभाव आनंदधनजी के मिलन का ही परिणाम हो सकता है। स्वयं यशोविजय कहते हैं कि मेरे लिए आनंदघनजी पारसमणि के समान थे, जिनके स्पर्श से मैं लोहे से कंचन बना।
22 कोई आनंदघन छिद्र ही पेखत, जसराय संग चडी जाय
आनंदधन आनंदरस झीलत, देखत ही जस गुण गाय ...... आनंदघन अष्टपदी V आनंदधन के संग सुजस ही मिले जब, तब आनंद सम भयो सुजस पारस संग लोहा जो फरसत, कंचन होत ही ताके कस ................. आनंदधन अष्टपदी
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