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उपाध्याय पद की प्राप्ति -
हीरविजयजी के समुदाय में गच्छाधिपति विजयदेवसूरि के पश्चात् गच्छ का भार विजयप्रभसूरि पर आया। उस समय अगाध पांडित्य, अनेक वादों में विजय प्राप्त करना, अठारह अवधान का प्रयोग आदि से यशोविजयजी की ख्याति वटवृक्ष की तरह चारों ओर फैल चुकी थी। यशोविजयजी के इन महान शासन प्रभावक कार्यों से प्रभावित होकर अहमदाबाद श्रीसंघ ने विजयप्रभसूरि से प्रार्थना की -"यशोविजयजी महाराज बहुश्रुत विद्वान होने के साथ उपाध्याय पद के लिए सर्वदा सुयोग्य पात्र हैं। अतः उन्हें उपाध्याय पद से विभूषित किया जाय।" संघ की आग्रह भरी विनती और यशोविजयजी की योग्यता को देखकर विजयप्रभसूरि ने संवत् 1718 में उनको उपाध्याय पद से सुशोभित किया। आचार्य पदवी के लिए सर्वथा योग्य यशोविजयजी जैसे प्रकाण्ड विद्वान और गीतार्थ पुरूष को आचार्य पदवी क्यों नहीं प्रदान की गई और उपाध्याय पदवी भी बहुत विलम्ब से क्यों मिली ? यह एक मननीय और चिन्तनीय प्रश्न है। पंचपरमेष्ठियों में चतुर्थ स्थान पर विराजित होकर यशोविजयजी ने प्राप्त उपाध्याय पद के गौरव को इस प्रकार बढ़ाया कि उपाध्याय पदवी उनके नाम की पर्याय बन गयी। महोपाध्यायजी अर्थात् यशोविजयजी ऐसा प्रचलन हो गया। जैनसंघ में आप महोपाध्यायजी के नाम से ही प्रसिद्ध है।
गुरू परंपरा -
महोपाध्याय यशोविजयजी ने स्वोपज्ञ प्रतिमाशतक, अध्यात्मोपनिषद वृत्ति एवं द्रव्यगुणपर्यायनोरास में अपनी गुरू परंपरा का परिचय दिया है।
20 ओली तप आराध्य विधि थकीजी, तस फल करतलि कीध वाचक पदवी सत्तर अठारमांजी, श्री विजयप्रभ दीध ......
सुजसवेलीभास, गा. 3/12
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