________________
393
3. एकप्रदेश स्वभावता और अनेक प्रदेशस्वभावता -
द्रव्यों की एकाकाररूप परिणति या अखंडाकार रूप रचना (बंध) एक प्रदेश स्वभावता है।1133 दूसरे शब्दों में असंख्य और अनंत प्रदेशवाले द्रव्यों की एकाकारता
और अखण्डपिण्डरूपता एकप्रदेश स्वभावता है। जैसे अनेक बुंदिओं से निर्मित लड्डू में एकाकारता और अखण्डता है उसी प्रकार धर्म, अधर्म आदि पांचों द्रव्यों के असंख्य या अनंत प्रदेशी होने पर भी उनका अखण्ड और एक द्रव्य रूप होना एकप्रदेश स्वभावता है।
द्रव्य में जो भिन्न-भिन्न प्रदेशपना है, वह अनेकप्रदेश स्वभावता है 1134 अर्थात् अनेक अवयवों से युक्त होना या अनेक अंशवाला होना अनेक स्वभावता है। मोदक में जो अगणित दाने दिखाई देते हैं, एक घट में जो अनेक परमाणु दिखाई देते हैं, एक पट में जो अनेक तन्तु दिखाई देते हैं, वे वस्तु के अनेकप्रदेशस्वभावता के सूचक है। इसी प्रकार काल के अतिरिक्त शेष पांचों द्रव्यों में जो भिन्न-भिन्न प्रदेश दिखाई देते हैं, वही उनकी अनेक प्रदेशस्वभावता है।
द्रव्य में एकप्रदेश स्वभावता को अस्वीकार करके सर्वथा भिन्न-भिन्न पृथक्-पृथक् प्रदेश मानने पर अखण्ड परिपूर्ण असंख्यात् प्रदेशों में जो एकरूप अर्थक्रिया होती है, उसका अभाव हो जायेगा। 135 क्योंकि सर्वथा अनेकप्रदेशी मानने पर असंख्यप्रदेशी धर्म, अधर्म और जीव के तथा अनंतप्रदेशी आकाश के एक-एक प्रदेश, एक-एक द्रव्य बन जाने से ‘यह धर्मास्तिकाय है, 'यह अधर्मास्तिकाय है' इस प्रकार उनके एकत्व का व्यवहार न होकर असंख्य धर्मास्तिकाय, असंख्य अधर्मास्तिकाय, और अनंत आकाशास्तिकाय ऐसा व्यवहार होने लग जायेगा।1136 परन्तु ऐसा व्यवहार होता नहीं है। सर्वत्र धर्मास्तिकाय आदि को अखण्ड एक द्रव्य ही
1133 एकप्रदेश स्वभाव ते, ते कहिइं, जे एकत्वपरिणति अखंडाकार बंध .. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/4 का टब्बा 1134 जी हो अनेकप्रदेश स्वभावता, लाला भिन्न प्रदेश स्वभाव ............ वही, गा. 12/5 1135 सर्वथा अनेक प्रदेशत्वे अपि तथातस्य अनर्थकार्यकारित्वं स्वस्वभावशून्यता प्रसंगा........ आलापपद्धति, सू. 145 1136 जो एक प्रदेश स्वभाव न होई तो असंख्यात प्रदेशादियोगई बहु वचन प्रवृति “एक धर्मास्तिकाय" ए व्यवहार न होई
.......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/5 का टब्बा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org