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________________ 394 कहा जाता है। इसलिए द्रव्यों में एकप्रदेश स्वभावता भी है। पुनः द्रव्य में अनेकप्रदेशस्वभावता को नहीं मानने पर असंख्यप्रदेश वाला, अनंतप्रदेशवाला ऐसा शास्त्र व्यवहार नहीं होगा। कालद्रव्य की तरह धर्मादिद्रव्य भी एक है और वे असंख्य या अनंतप्रदेशी नहीं है ऐसा अर्थ हो जाने से पंचास्तिकाय की अवधारणा ही व्यर्थ सिद्ध होगी।1137 अनेक प्रदेश स्वभावता को नहीं मानकर केवल एकप्रदेशस्वभावता को स्वीकार करने पर भिन्न-भिन्न भाग नहीं होने से भागाश्रित संकंप-निष्कंप ऐसा उभयस्वरूप घटित नहीं होगा। 138 परन्तु यह चाक्षुष प्रत्यक्ष है कि घट-पट आदि पदार्थों का पवन चलने पर एक भाग चलित और दूसरा भाग अचलित रहता है। पुनः परमाणु के साथ धर्म आदि तीन द्रव्यों का संयोग अनेकप्रदेशस्वभावता मान्य बिना घटित नहीं होगा। क्योंकि एकान्त एकप्रदेशस्वभावता को मानने पर या तो परमाणु को धर्म, अधर्म और आकाश की तरह बड़ा होना पड़ेगा या धर्मास्तकाय आदि को परमाणु जितना छोटा होना पड़ेगा। परन्तु ऐसा नहीं होता है। कोई भी परमाणु इन तीनों द्रव्यों के एक भाग के साथ स्पृष्ट रहता है और अन्य प्रदेशों के साथ अस्पृष्ट रहता है। इस प्रकार इन तीन द्रव्यों के साथ परमाणु की स्पृष्टता और अस्पृष्टता ही उनमें अनेक प्रदेशता को सिद्ध करती है।1139 4. विभाव स्वभाव - स्वभावात्मक भाव से जो विपरीत भाव है, वह विभाव स्वभाव कहलाता है।1140 मूल स्वभाव का अन्यथाभाव विभावस्वभाव कहलाता है। जैसे जीवद्रव्य अपने स्वभाव से सिद्ध परमात्मा की तरह दोषों से रहित शुद्ध, बुद्ध, निरंजन और निराकार है। परन्तु पूर्वबद्ध कर्मों के उदय से औदायिकभाव के रूप में जीव क्रोध, मान-माया, 1137 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2 का विवेचन –धीरजभाई डाह्यालाल महेता, पृ. 600 1138 जी हो किम संकप-निःकंपता, लाला जो न अनेक प्रदेश ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.12/6 1139 जी हो अणु संगति पणि किम घटइ, लाला देश सकल आदेश ........ वही, गा. 12/6 का उत्तरार्ध 1140 अ) स्वभावात अन्था भवन विभावः .......... ...... आलापपद्धति, सू. 121 ब) जी हो भाव स्वभावह अन्यथा, लाला छइ विभाव वडव्याधि ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12/8 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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