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बहुआयामी वस्तु की सम्यक् एवं सापेक्ष शाब्दिक अभिव्यक्ति करना है। अनेकान्तवाद
और स्याद्वाद एक दूसरे के पूरक हैं। जहां अनेकान्तवाद वस्तु के बहुआयामिता को स्पष्ट करता है वहीं स्याद्वाद उस बहुआयामिता वस्तु को अभिव्यक्त करने के लिए निर्दोष भाषा शैली प्रस्तुत करता है। परन्तु किन अपेक्षाओं से वस्तु की बहुआयामीयता को स्पष्ट किया जाता है, उनका स्पष्टीकरण तो नयवाद के द्वारा ही संभव है। नयवाद यह बताता है कि किस वस्तु के किन गुण-धर्मों को किस दृष्टि से कहा गया है।
प्रस्तुत कृति में उपाध्याय यशोविजयजी ने न केवल नयों की चर्चा की है, किन्तु साथ में यह भी स्पष्ट किया है कि वस्तु के किस पक्ष को किस अपेक्षा से स्पष्ट किया जावे। प्रस्तुत कृति में मैने नयस्वरूप और नय विभाजन को लेकर विस्तृत चर्चा की है जो लगभग 80 पृष्ठों में समाप्त हुई है। क्योंकि उपाध्याय यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में और उसकी स्वोपज्ञ टीका में नय और नय के प्रकारों तथा उपप्रकारों की विस्तृत चर्चा की है वहां यह भी बताया है कि किस नय की अपेक्षा से द्रव्य, गुण और पर्याय का कौन सा सम्बन्ध स्पष्ट होगा। इसी प्रसंग में उन्होंने जहां एक ओर दिगम्बर आचार्य देवसेन की नय विभाजन पद्धति को अपनाते हुए उसकी विस्तृत चर्चा की है, वहीं दूसरी ओर उनके नय विभाजन में कहां और कौनसी कमी रही है, उसको भी इंगित किया है। यह स्पष्ट है कि श्वेताम्बर परम्परा के किसी तत्त्वमीमांसीय ग्रन्थ में नयों और उनके प्रकारों एवं उपप्रकारों का वर्णन सर्वप्रथम 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में देखा जा सकता है। इससे यह बात और स्पष्ट होती है कि उपाध्याय यशोविजयजी समीक्षात्मक दृष्टि को रखते हुए भी समीक्षा में विरोधी के सत्पक्ष को अपनाने में नहीं हिचकिचाते थे।
नयों के इस विभाजन में जहां उन्होंने आगमिक परम्परा के अनुसार द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनयों की चर्चा की है, वहीं निश्चयनय और व्यवहारनय की भी विस्तृत चर्चा की है। इसके अतिरिक्त इसी प्रसंग में जैन परम्परा के दर्शनयुग के नैगम आदि नयों का समाहार भी किया है तथा यह बताया है कि इन
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