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नयों के माध्यम से द्रव्य-गुण-पर्याय के पारस्परिक संबंधों को किस प्रकार सम्यक् रूप से समझाया जा सकता है।
प्रस्तुत कृति के तृतीय अध्याय में हमने सर्वप्रथम द्रव्य के स्वरूप, लक्षण और प्रकारों की चर्चा की है। इस चर्चा में हमने यह स्पष्ट किया है कि जैनदर्शन में पंचास्तिकाय की अवधारणा से षद्रव्यों की अवधारणा किस प्रकार विकसित हुई। यह सत्य है कि तत्त्वमीमांसा का जन्म दृश्यमान जगत के इन मूलभूत घटकों के स्वरूप को जानने के प्रयास में ही हुआ है। लेकिन जगत् के इस मूलभूत घटक को क्या कहा जाय, इस बात को लेकर दार्शनिकों में मतभेद रहा है। वैदान्त में मूलभूत घटक को सत् या ब्रह्म कहा गया है तो वहीं माध्यमिक बौद्धदर्शन में उसे शून्य कहा गया है। जबकि नैयायिकों और वैशेषिकों ने इस मूलभूत घटक को द्रव्य कहा है। लेकिन हम गहराई में जायें तो लगता है कि कूटस्थ नित्यवादियों की दृष्टि से उसके लिए सत् नाम उपयुक्त रहा है तो सत्ता के परिवर्तनशील पक्ष को माननेवालों ने उसे द्रव्य के रूप में अभिव्यक्त किया है। जबकि बौद्धों ने उसे परिवर्तनशील या अपरिवर्तनशील न कहकर 'शून्य' के नाम से सम्बोधित किया है। जैन दार्शनिक उमास्वाति ने जहां एक ओर उत्पाद व्यय और ध्रौव्य को सत् का लक्षण कहा है, वहीं दूसरी ओर ‘सतद्रव्यलक्षणं' कहकर सत् और द्रव्य के मध्य समन्वय किया है। उपाध्याय यशोविजयजी की दृष्टि भी यही समन्वयवादी रही है। इसलिए उन्होंने भी द्रव्य के लक्षण की चर्चा करते हुए उसमें न केवल उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को सिद्ध किया है, अपितु यह भी स्पष्ट किया कि यह उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य विभिन्न कालों में घटित न होकर सत्ता में समकाल में घटित होते हैं। जिस समय उत्पत्ति है उसी समय विनाश और ध्रौव्य भी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न दार्शनिक परंपरा में विश्व के मौलिक तत्त्व के स्वरूप को लेकर विभिन्न दर्शनों की स्थापना हुई। ऋग्वेद में कहा भी गया है ‘एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति' सत् एक है, किन्तु मनीषीगण उसको अनेक रूपों में व्याख्या करते हैं। यही कारण है कि स्वतंत्र चिन्तन के आधार पर विकसित दार्शनिक परंपराओं में जगत के मूल घटक को लेकर विभिन्न मत दिखाई देते हैं। उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार भी विश्व अकृत्रिम
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