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शब्द रखा गया है अर्थात् नास्तित्व धर्म पर द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से है । इस प्रकार द्वितीय भंग का आशय है कि कथंचित् परचतुष्टय की अपेक्षा से घट का नास्तित्व है । '
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3. स्यादवक्तव्य :- स्याद् अवक्तव्यो घटः
इस सप्तभंगी के तृतीय भंग में स्वचतुष्टय और परचतुष्टय, दोनों की युगपत् अपेक्षा से वस्तु विशेष में अस्तित्व और नास्तित्व धर्म की अभिव्यक्ति की असमर्थता बताई गई है।
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शब्दशक्ति की सीमितता के कारण वस्तु के किसी एक धर्म के विधि उल्लेख में उसका निषेध रह जाता है और निषेध के उल्लेख में विधि रह जाती है। विधि निषेध की युगपद् वक्तव्यता संभव नहीं है । 130 पदार्थ में स्वद्रव्य आदि से अस्तित्व धर्म और परद्रव्य आदि से नास्तित्व धर्म दोनों एक साथ ही विद्यमान रहते हैं । परन्तु इन दोनों धर्मों को एक साथ और एक ही शब्द द्वारा अभिव्यक्त करने के लिए भाषा में ऐसा कोई पारिभाषिक शब्द नहीं है । अस्तित्व, नास्तित्व रूप घट की दोनों पर्यायों की युगपद् अभिव्यक्ति संभव नहीं होने से घट कथंचित् अवक्तव्य है । 131 अर्थात् घट की वक्तव्यता युगपद् में नहीं है। तृतीय भंग इस बात का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करता है कि अस्तित्व - नास्तित्व का युगपद् वाचक शब्द नहीं होने से विधि-निषेध का युगपत्व अवक्तव्य है । 132 एकान्त अवक्तव्यता का निराकरण के लिए स्यात् - गया है, क्योंकि क्रमशः कथन तो संभव है ।
- शब्द रखा
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परद्रव्य क्षेत्र काल भावा पेक्षाइं नथी जा ।
130 जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 264
131 एकवारइं – उभयविवक्षाइं अवक्तव्य ज, 2 पर्याय एक शब्दइ मुख्यरूपइ नकहवाइज
द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 4 / 9
132 जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 265
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 4/9
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