________________
104
1. प्रथम भंग : स्याद् अस्ति -
प्रथम भंग का आशय है, स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से वस्तुविशेष अस्तित्वयुक्त है। यहां स्वचतुष्टय की अपेक्षा से विधि की विवक्षा की गई है।126 जैसे- स्याद् अस्ति घटः । विवक्षित मिट्टी का घट अपने द्रव्य की अपेक्षा से मिट्टी का है, क्षेत्र की अपेक्षा से शाजापुर का है, काल की अपेक्षा से शरद ऋतु का है, भाव की अपेक्षा से, वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से लाल रंग का है। इस प्रकार वस्तु के स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से वस्तु के भावात्मक गुणों का विधान करना प्रथम भंग का कार्य है। ‘स्यात्' शब्द का अर्थ है 'विवक्षित द्रव्यादि की अपेक्षा से', अतः प्रथम भंग का तात्पर्य यह हुआ कि कथंचित् स्वचतुष्टय की अपेक्षा से घट का अस्तित्व।127
2. द्वितीय भंग : स्याद् नास्ति -
द्वितीय भंग का तात्पर्य है, पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का अभाव। यहां परचतुष्टय के निषेध की विवक्षा है।128 जैसे- स्याद् नास्ति घट। विवक्षित मिट्टी का घट परद्रव्यकी अपेक्षा से सुवर्ण का नहीं है। पर क्षेत्र की अपेक्षा से इन्दौर का बना हुआ नहीं है, पर काल की अपेक्षा से ग्रीष्म ऋतु का नहीं है, पर भाव की अपेक्षा से श्याम वर्ण का नहीं है। इस प्रकार परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से वस्तु के अभावात्मक गुणों का निषेध करना द्वितीय भंग का कार्य है।
प्रत्येक वस्तु में विधि-निषेध दोनों होते हैं। अस्तित्व धर्म के साथ नास्तित्व भी रहता है। इस भंग में घट के नास्तित्व धर्म का विधान प्रधान रूप से होने पर भी वह नास्तित्व एकान्तरूप से नहीं है। गौण रूप से अस्तित्व को समझाने के लिए 'स्यात्'
126 जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 263 127 स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावपेक्षाई घट छाइ ज। द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 4/9 128 जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 263
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org