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नास्ति - अवक्तव्य
अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य ये त्रिसंयोगी भंग हैं (3+3+1=7) | 123
ये तीन द्विसंयोगी भंग है और अन्तिम स्यात्
उपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की चतुर्थ ढाल में सप्तभंगी का विवेचन करते हुए लिखा है द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के संयोग से करोड़ों भंग बन सकते हैं। 124 इसका तात्पर्य यह है कि वस्तु के किसी एक धर्म की स्वद्रव्यादि चतुष्क के विधान या पर द्रव्यादि चतुष्क के निषेध में से किसी एक की अपेक्षा से तो एक सप्तभंगी ही बन सकती है। जैसे मिट्टी का घड़ा स्वद्रव्य (मिट्टी) की अपेक्षा से अस्ति रूप है । परद्रव्य सुवर्ण की अपेक्षा से नहीं है (नास्ति ) । क्योंकि उसमें स्वर्णत्त्व का अभाव है। दोनों के युगपत् कथन की अपेक्षा से अवक्तव्य है, इत्यादि घट के अस्तित्व धर्म के सात भंग ही बन सकते हैं। घट के इस एक अस्तित्व धर्म के अनन्त भंग नहीं बन सकते हैं । वस्तु में केवल अस्तित्व धर्म ही नहीं है, अपितु अनन्त धर्म हैं । अतः जिस प्रकार स्वद्रव्य की अपेक्षा से वस्तु के एक धर्म की एक सप्तभंगी बनती है, उसी प्रकार वस्तु के स्व पर चतुष्क की अपेक्षा से या अनन्त धर्मों की अनन्त सप्तभंगियां बन सकती हैं। 125 वस्तु के अनन्तधर्मात्मक होने के कारण स्वद्रव्य, स्वकाल, स्वक्षेत्र, स्वभाव तथा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से अनंत सप्तभंगियां निर्मित होती हैं। डॉ. सागरमलजी जैन के शब्दों में जैसे वस्तु के एक गुणधर्म की अपेक्षा से एक सप्तभंगी निर्मित होती है उसी प्रकार वस्तु के अनन्त गुण धर्मों की अपेक्षा से अनन्त सप्तभंगियां बन सकती हैं। इस दृष्टि से ही यशोविजयजी ने करोड़ों भंगों की बात कही है। इस बात को समझाने के लिए उन्होंने घट में सप्तभंगी को घटाया है । घट एक वस्तु होने से अनन्तधर्मात्मक है । घट के इन अनन्त धर्मों में से अस्तित्व भी एक गुणधर्म है। घट में अस्तित्व धर्म के स्वचतुष्टय और परचतुष्टय की अपेक्षा से विधि और निषेध के आधार पर निर्मित सप्तभंगी को यशोविजयजी ने इस प्रकार समझाया है -
123 अनेकान्त, स्यादवाद और सप्तभंगी, पृ. 24
124 क्षेत्र काल भावादिक योगइ, थाई भंगनी कोड़ी रे
संखेपइ अ ठामि कहिइ, सप्तभंगनी जोड़ी रे
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/9
125 तिम क्षेत्रादिक विशेषणइं पणि अनेक भंग थाई - द्रव्यगुणपयार्यनोरास का टबा गा. 4/9
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