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प्रतिपादन करने वाली कथन पद्धति है।19 वस्तु के किसी भी धर्म के स्वरूप सम्बन्धी सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जाना ही सप्तभंगी है।120
अनन्तभंगी नहीं हो सकती है :
भंग सात ही हो सकते हैं। न सात से अधिक भंग की संभावना है और न ही सात से न्यून भंग ही हो सकते हैं। एक तत्त्व पिपासु व्यक्ति तत्त्वस्वरूप को जानने की अभिलाषा से अपनी जिज्ञासा, शंका को अधिक से अधिक सात प्रश्नों के द्वारा ही प्रकट कर सकता है। क्योंकि वस्तु के एक धर्म-स्वरूप सम्बन्धी जिज्ञासाएं अथवा शंकाएं सात ही हो सकती है। इस दृष्टि से जैन दार्शनिकों ने सात प्रकार के प्रश्नों के समाधान हेतु सात भंगों की परिकल्पना की है। अतः सप्तभंगी, तत्त्वजिज्ञासु के प्रश्नों के उत्तर के रूप में है।121
गणित शास्त्र के अनुसार भी तीन मूल वचनों के संयोगी, असंयोगी और अपुनरूक्त ये सात ही भंग हो सकते हैं। इसी नियम के आधार पर विधि, निषेध और अव्यक्तता से सात प्रकार का वचन विन्यास बनता है, यही सप्तभंगी है।122 सामान्य रूप से वस्तु के किसी एक धर्म के विषय में विधिपूर्वक 'है' कहा जा सकता है या निषेधपूर्वक 'नहीं' कहा जा सकता है और कभी-कभी ऐसी स्थिति निर्मित होती है कि 'है' और 'नहीं' दोनों को ही स्पष्टतया नहीं कहा जाता है। ऐसी स्थिति में कुछ कहा नहीं जा सकता है' ऐसा वाक्य का प्रयोग होता है। क्योंकि इस मध्यम अनुभूति को व्यक्त करने के लिए भाषा के पास कोई शब्दावली नहीं है। इस कारण से मूल भंग तीन हैं। सप्तभंगी में स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अवक्तव्य ये प्रथम तीन भंग मौलिक भंग है; स्यात् अस्ति–नास्ति, स्यात् अस्ति-अवक्तव्य, स्यात्
119 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, पृ. 23 120 सप्तानां – भंङ्गानां-वाक्यानां, समाहारः समूहः सप्तभंगीति – सप्तभंगीतरंगिणी, पृ. 1 2 धर्मदर्शनः मनन और मूल्यांकन, पृ. 170 122 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, पृ. 24
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