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4. स्याद् अस्ति–नास्तिः स्याद् अस्तिनास्ति च घट :
चतुर्थ भंग यह सूचित करता है कि स्वद्रव्यादि चतुष्टय और परद्रव्यादि चतुष्टय, इन दोनों की क्रमिक अपेक्षा से वस्तुविशेष में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्म है। इस भंग में पहले विधि और बाद में निषेध की क्रमशः विवक्षा की जाती है।33 जैसे– स्याद् अस्ति नास्ति च घटः। यशोविजयजी के कथनानुसार विवक्षित मिट्टी के घट का स्वरूप स्वद्रव्यादिचतुष्क की दृष्टि से अस्तित्वात्मक है एवं परद्रव्यादिचतुष्क की दृष्टि से नास्तित्वात्मक है। परन्तु क्रमशः विचार करने पर घट का स्वरूप कथंचित् अस्ति–नास्ति उभयरूप है।34 स्यात् शब्द इस बात को स्पष्ट करता है कि वस्तु एकान्तः अस्ति–नास्ति रूप नहीं परन्तु पृथक्-पृथक् रूप से अस्ति, नास्ति आदि रूप में भी है।
5. स्याद् अस्ति–अवक्तव्य :- स्याद् अस्ति अवक्तव्यो घट: -
इसमें प्रथम और तृतीय भंग (स्याद् अस्ति और स्यादवक्तव्य) की क्रमिक अपेक्षा से वस्तुविशेष का युगपत् विवेचन है। यहां प्रथम विधि और बाद में युगपत् विधि-निषेध की विवक्षा है।35 जैसे - स्याद् अस्ति अवक्तव्यो घटः। प्रथम स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से घट है, ऐसा विचार किया जाता है और बाद में स्वचतुष्टय और परचतुष्टय -दोनों की युगपद् अपेक्षा से घट का युगपत् अस्तित्व
और नास्तित्व अवक्तव्य है, ऐसा विचार किया जाता है।136 अतः पंचम भंग का तात्पर्य है – कथंचित् घट है और अवक्तव्य भी है।
133 जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 264 134 एक अंश स्वरूपई, एक अंश पररूपइं, विवक्षइं, तिवारइं "छइ नई नथी -
- द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 4/9 135 जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 265 136 एक अंश स्वरूपइ, एक अंश युगपत् उभय रूपइ विवक्षीइ, तिवारइ, "छइ अनदं अवाच्य -
- द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा.4/9
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