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गुणों के अतिरिक्त द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है। जैसे- सुवर्ण के पीतत्व, कोमलता, उज्ज्वलता आदि अनेक गुण हैं। सुवर्ण इन सभी गुणों का समूह है। यदि सुवर्ण से पीतत्व आदि गुणों को एक-एक करके निकाल दिया जाय तो सुवर्ण का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। इसी कारण से पूज्यपाद ने गुणों के समुदाय को ही द्रव्य कहा है।612 न्यायदर्शन द्रव्य और गुण को सर्वथा भिन्न-भिन्न मानकर उनमें 'समवाय' के माध्यम से परस्पर सम्बन्ध को स्थापित करता है। उनके अनुसार जैसे दिवाल में चित्र होता है, वैसे ही गुण द्रव्य में रहते हैं। समवाय सम्बन्ध से ही गुणों का आश्रय द्रव्य है।613 परन्तु जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने गुणों का अखण्ड पिण्ड है। जैसे - मूल, स्कन्ध, शाखाएं, पत्ते, फूल, गुच्छे और फल ये सब मिलकर ही वृक्ष कहलाता है। उसी प्रकार देश-देशांश, गुण-गुणांश सब मिलकर ही द्रव्य कहलाता है।614 द्रव्य गुणों की एक विशेष प्रकार की संरचना का ही नाम है। गुण द्रव्य से पृथक् नहीं हो सकते हैं। जीव से अस्तित्व आदि सामान्य गुण तथा ज्ञान आदि विशेष गुणों को पृथक् नहीं किया जा सकता है। जीवद्रव्य सामान्य और विशेष गुणों का अखण्ड समुदाय है। अतः द्रव्य गुणों का समुदाय है। यही परिभाषा पंचास्तिकाय के वृत्ति15 और पंचाध्यायी16 में दी गई है।
3. पर्याय के आधार पर :
जिनभद्रगणि ने द्रव्य का निवर्चन करते हुए कहा है कि जो द्रवता है अर्थात् जो स्वपर्यायों को प्राप्त होता है अथवा उन्हें प्राप्त कराता है, वह द्रव्य है। जो रूपान्तर और अवस्थान्तर को प्राप्त होता रहता है वह द्रव्य है। सर्वार्थसिद्धकार ने भी
612 गुणसमुदायो द्रव्यमिति। - सर्वार्थसिद्धि, 5/2 613 अथवापि यथा भितौ चित्रं – पंचाध्यायी, श्लो. 1/76 614 इदमस्ति यथा मूलं स्कन्धः - वही, श्लो. 1/77 615 द्रव्यं ही गुणानां समुदायः – पंचास्तिकाय, गा. 44 की वृत्ति 616 गुण समुदायो द्रव्यं – पंचाध्यायी, श्लो. 1/73
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