________________
233
सत् को द्रव्य का लक्षण कहने से केवल अस्तित्व गुण का ही ग्रहण नहीं होता अपितु अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि अनन्त गुणों से युक्त संपूर्ण वस्तु (द्रव्य) का ग्रहण होता है। क्योंकि वस्तु के अस्तित्व आदि सभी गुण अभिन्न है। अतः सत् कहने मात्र से गुण समुदायरूप संपूर्ण वस्तु का ग्रहण होता है। इसलिये वस्तु सत्स्वरूप
है।610
2. गुणों के आधार पर :
उत्तराध्ययनसूत्र में 'गुणाणमासओ दव्वं' कहकर द्रव्य को परिभाषित किया है। द्रव्य गुणों का आश्रयस्थल है। जिसमें गुण रहते हैं, वह द्रव्य कहलाता है। गुण शब्द के लोकभाषा में विभिन्न अर्थ मिलते हैं, पर यहाँ गुण से तात्पर्य धर्म से है। ज्ञान आदि अनंतगुण जिस द्रव्य के आश्रित होकर रहते हैं वह जीव द्रव्य है। रूपादि अनंत गुणों का आश्रय पुद्गलद्रव्य है। यद्यपि यह परिभाषा आधार-आधेय या आश्रय-आश्रित सम्बन्ध के आधार पर दी गई है, परन्तु द्रव्य और गुण सर्वथा भिन्न नहीं है। गुण, द्रव्य से अभिन्न होकर ही उसमें आश्रित रहते हैं। यह आधार और आधेय सम्बन्ध चौकी और पुस्तक के समान नहीं है अपितु पुस्तक और अक्षर के समान है। जैसे अक्षरों के बिना पुस्तक का कोई अस्तित्व नहीं है, उसी प्रकार गुण के बिना द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है। राजकुमार छाबड़ा ने अपने शोध-प्रबन्ध में लिखा है कि द्रव्य और गुण के अभिन्न से तात्पर्य है उनका आश्रय या प्रदेश एक ही है जहाँ वस्तु पायी जाती है, वह उस वस्तु का प्रदेश है। इस दृष्टि से द्रव्य का प्रदेश उसके गुण हैं। क्योंकि गुणों से द्रव्य रचित है। गुण का प्रदेश द्रव्य है। क्योंकि गुण, द्रव्य में ही व्याप्त रहते हैं।11 द्रव्य और गुण दोनों अन्योन्याश्रित हैं। स्वलक्षण से भिन्न होते हुए भी एकक्षेत्रावग्राही होने से अभिन्न भी हैं।
610 पंचाध्यायी - हिन्दी टीकान्तर, पं. मक्खनलालजी शास्त्री, पृ. 4
611 जैनदर्शन में द्रव्य का अवधारणा और कार्य-कारण सम्बन्ध - राजकुमार छाबड़ा, पृ. 64
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org