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लगभग द्रव्य की ऐसी ही परिभाषा दी है।17 पदार्थों में प्रतिक्षण परिवर्तन घटित होता रहता है। पुरानी अवस्थाएं मिटती रहती हैं और नवीन अवस्थाएं बनती रहती हैं। अवस्थाओं को ही पर्यायाएं कहा जाता है। पदार्थ में विभिन्न पर्यायों की उत्पत्ति और विनाश का क्रम प्रतिक्षण और सतत् चलता रहता है। कुछ पर्यायें उत्पन्न हो चुकी रहती हैं, कुछ उत्पन्न होती रहती हैं और कुछ पर्यायें उत्पन्न होने वाली रहती हैं। इसी प्रकार पर्यायों का नाश भी चलता रहता है। जैसे सागर में लहरों का उठना
और गिरना सतत् चलता रहता है, उसी प्रकार द्रव्य में पर्यायें उठती और गिरती रहती हैं। अतः जैसे सागर लहरों का समूह है, वैसे ही द्रव्य त्रिकाल पर्यायों का समुदाय है। जो भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त हुआ था, हो रहा है और होगा वह द्रव्य है। विद्यानंदी के शब्दों में तीनों काल में क्रम से होने वाली पर्यायों का आश्रय द्रव्य है।618 धवलाकार ने भी इसी बात की पुष्टि करते हुए कहा है कि अतीत, वर्तमान और भविष्य पर्यायरूप जितनी अर्थपर्याय व व्यंजनपर्यायें होती हैं, तद्नुरूप ही द्रव्य होता है।619
आप्तमीमांसा में त्रिकालवर्ती पर्यायों का अभिन्न सम्बन्ध रूप जो समुदाय है, उसे द्रव्य कहा गया है।20 उत्पाद, स्थिति और भंग, इन तीन पर्यायों का समुदाय ही द्रव्य कहलाता है।621
4. गुण और पर्याय के आधार पर :
उमास्वाति ने द्रव्य की आगमिक परिभाषा के साथ में पर्याय शब्द की संयोजना करके द्रव्य का लक्षण ‘गुणपर्यायवद् द्रव्यम् 22 दिया है। गुण और पर्याय
617 यथास्वं पर्यायैर्दुयन्ते - सर्वार्थसिद्धि, सू. 5/2, पृ. 529 618 पर्ययवद्रव्यमिति
.. श्लोकवार्तिक, 1/5/63 619 धवला, 1/1/199 620 नयोपनयैकान्तानां - आप्तमीमांसा, का. 107 621 उत्पादस्थिति भंगाः पर्यायाणां – पंचाध्यायी, श्लो. 1/200 622 "गुणपर्यायवद् द्रव्यम्” – तत्त्वार्थसूत्र, 5/38
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