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वाला द्रव्य है। गुण, द्रव्य में रहने वाले उस अंग का नाम है जो द्रव्य में सदा और सर्वांश में व्याप्त होकर रहता है। जैसे – जीवद्रव्य में ज्ञान गुण सर्वदा और सर्वांश में व्याप्त रहता है। आम्रफल में स्पर्श, रसादि गुण संपूर्ण आम्रफल में व्याप्त और सदा रहते हैं। गुणों में होने वाले परिवर्तन को पर्याय कहा जाता है। जैसे – ज्ञान गुण के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि अवस्थाएं तथा कोमल, कर्कश आदि स्पर्श की एवं रक्त, पीतादि वर्ण की अवस्थाएं हैं वही पर्याय है। गुण अन्वयी या सहभावी होते हैं और सदा द्रव्य के साथ ही रहते हैं। पर्याय व्यतिरेकी या क्रमभावी होते हैं और द्रव्य के अन्दर इनका उदय क्रम से होता रहता है। एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से भेद करने वाले को गुण और द्रव्य के विकार को पर्याय कहा जाता है।623 संक्षेप में जिनसे 'यह वही है' ऐसी धारा के रूप में एकरूपता बनी रहती है वे गुण कहलाते हैं और जिनसे भेद परिलक्षित होता है, वे पर्यायाएं कहलाती हैं।
गुण और पर्याय का सम्मिलित रूप ही द्रव्य है।824 प्रवचनसार में द्रव्य को गुण और पर्यायों की आत्मा या सत्त्व कहा है। 25 ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि जीव के गुण हैं तथा मतिज्ञान आदि एवं मनुष्यत्व, देवत्व आदि जीव की पर्यायें हैं। इस प्रकार ज्ञानादि गुण और मतिज्ञान आदि पर्यायें मिलकर ही जीवद्रव्य है। गुण और पर्याय से भिन्न द्रव्य का कोई अस्तित्व नहीं है। द्रव्य के बिना गुण नहीं होते हैं और गुण के बिना द्रव्य नहीं हो सकता है।26 इसी प्रकार पर्यायों से रहित द्रव्य का और द्रव्य से रहित पर्यायों का कोई अस्तित्व नहीं होता है।27 इसी दृष्टि से पंचास्तिकाय में गुण और पर्यायों के आश्रय अथवा आधार को द्रव्य कहा है। 28 इसका तात्पर्य यह नहीं है कि गुण और पर्याय कोई दूसरे पदार्थ हैं जो द्रव्य में रहते हैं। परन्तु इसका आशय
623 गुण इति दत्वविहाणं .... अणुपदसिद्ध हवे णिचं ........ सर्वार्थसिद्धि, पृ. 237 पर उद्धृत 624 अ) नानागुणपर्यायैः संयुक्ताः .. ....... नियमसार, गा. 9 ब) आलापपद्धति, सूत्र 6 625 दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया .............. प्रवचनसार, गा. 2/87 626 दव्वेण विणा न गुणा गुणेहि दव्वं ......... पंचास्तिकाय, गा. 15 627 पज्जय-विजुदं दव्वं .............. वही गा. 12 628 दव्वं सल्लक्खणयं
पंचास्तिकाय, गा. 10
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