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है, गुण और पर्याय जिसमें पाये जाते हैं वही द्रव्य है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए पंचाध्यायीकार ने 'गुणपर्यायवद्र्व्यं' के बाद 'गुणपर्यायसमुदायोद्रव्यं' ऐसा लक्षण करके गुण और पर्यायों के समूह को द्रव्य नाम से अभिहित किया है। 29 दूसरे शब्दों में ऐसा कहा जा सकता है कि त्रिकालवर्ती पर्यायों से युक्त गुणों का अखण्ड पिण्ड ही द्रव्य है। आचार्य तुलसी ने भी गुण और पर्याय के आश्रय को द्रव्य कहा है।930
यद्यपि द्रव्य को गुण और पर्यायवाला कहा गया है और उनमें लक्षणादि से परस्पर भेद भी बताये गये हैं। किन्तु द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों पृथक्-पृथक् नहीं हैं। इनमें सत्तागत भेद नहीं है। एक सत्तात्मक है। तीनों का एकत्व ही परमार्थ दृष्टि से वस्तु है।631 यशोविजयजी ने भी गुण और पर्याय के भाजन को द्रव्य कहा है। जो गुण और पर्याय का आधार या स्थान है, वही द्रव्य है।932 गुण अपरिवर्तनशील होने से द्रव्य के ध्रौव्य पक्ष को तथा पर्याय परिवर्तनशील होने से द्रव्य के उत्पाद-व्यय पक्ष को बनाये रखते हैं। इस दृष्टि से अनेक जैन दार्शनिकों ने द्रव्य को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के आधार पर ही परिभाषित किया है। उमास्वाति ने भी द्रव्य का लक्षण 'सत्' बताकर सत् को उत्पाद–व्यय-ध्रौव्यात्मक कहा है। उपाध्याय यशोविजयजी ने प्रस्तुत 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की नौंवी ढाल में द्रव्य या सत् के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक त्रिलक्षण की चर्चा विस्तार से की है, जिसकी चर्चा हम यहां करेंगे। किन्तु उसके पूर्व अनेक जैन दार्शनिकों के द्रव्य के लक्षण के रूप में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की चर्चा किस प्रकार की है, इसका संक्षिप्त वर्णन यहाँ अपेक्षित
629 गुणपर्ययवद्रव्यं लक्षणम् ............. पंचाध्यायी, का. 1/72 630 गुणपर्यायाश्रयो द्रव्यम्' ................ . जैनसिद्धान्तदीपिका, 1/8 631 सो वि विणस्सदि जायदि ................. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 242 632 गुण पर्यायतणु जे भाजन, एकरूप त्रिहुं कालिं रे ......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/1
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