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है वहीं अपेक्षा विशेष से भेद भी अवश्यमेव विद्यमान रहता है।1335 यह भेद और अभेद मात्र ज्ञान में नहीं है, अपितु स्वयं वस्तु में है। प्रत्येक पदार्थ स्वभाव से ही भेदाभेदात्मक है।1396 अतः द्रव्य और पर्याय में परस्पर भेद और अभेद दोनों हैं। ___जैनदर्शन के अभिमत में वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है।1337 स्थिति और परिवर्तन एक ही वस्तु के दो अंग है। वस्तु का अपरिवर्तनशील (नित्य) पक्ष द्रव्य है और परिवर्तनशील (अनित्य) पक्ष पर्याय है। भगवतीसूत्र 398 में कहा गया है -दवट्ठाए सिया सासया भावट्ठयाए सिया असासया" अर्थात् द्रव्य की दृष्टि से सत् शाश्वत् है
और पर्याय की दृष्टि से सत् अशाश्वत् है। 'सन्मतितर्क1339 में भी यही मत व्यक्त किया हुआ है -
उपज्जति चयंति आ भावा नियमेण पज्जवनयस्स।
दवट्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पन्न अविणटुं।। पर्याय की अपेक्षा से वस्तु उत्पन्न होती है और विनष्ट होती है, किन्तु द्रव्य की अपेक्षा से वस्तु न तो उत्पन्न होती है और न ही विनष्ट होती है। इसका फलितार्थ यही है कि वस्तु उत्पाद–व्यय-ध्रौव्यात्मक है। परिणमन वस्तु का आधारभूत लक्षण है। इस परिणमन के परिणामस्वरूप वस्तु प्रतिक्षण जिन भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होती है, वे पर्याय कहलाती हैं तथा इन प्रतिक्षण उत्पन्न होने वाली और विनष्ट होनेवाली पर्यायों के मध्य भी जो अपने मूलस्वरूप का पूर्णतः परित्याग नहीं करता है, वह द्रव्य है। उदाहरणार्थ मृतिका की पिंड-स्थास-कोशकुशूल-घट आदि पर्यायें बदलती रहती हैं, किन्तु मृद्रव्य अपने स्व-जातीय धर्म का परित्याग नहीं करता है। यदि द्रव्य और पर्याय में सर्वथा अभेद होता तो पर्याय के नष्ट होने पर द्रव्य भी नष्ट हो जाता किन्तु पिंड आदि पर्यायों के नष्ट होने पर भी
1335 जेहनो भेद अभेद ज तेहनो, रूपान्तर संयुतनो रे ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 4/8 का पूर्वार्ध 1336 जैनधर्म-दर्शन, - डॉ मोहनलाल मेहता, पृ. 136 1337 प्रमाणस्य विषयः द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु .............. प्रमाणमीमांसा, 1/1/30 1338 भगवइ, 7/59 1339 उपज्जति चयंति
सन्मतितर्क, गा. 1/11
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