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मृत्तिका का नाश नहीं होता है। इसका तात्पर्य यही हुआ कि पर्याय द्रव्य नहीं है। द्रव्य और पर्याय में कथंचित् भेद है। यदि द्रव्य और पर्याय में कथंचित् भेद नहीं होता तो अर्थात् सुवर्ण द्रव्य और सुवर्णघट, सुवर्णमुकुट आदि में कथंचित् भेद नहीं होता तो सुवर्णघट के इच्छुक व्यक्ति को सुवर्णघट के नाश होने पर शोक और सुवर्णमुकुट के इच्छुक व्यक्ति को सुवर्णमुकुट की उत्पत्ति होने पर हर्ष नहीं होना चाहिए।1340 उसी प्रकार सुवर्ण और सुवर्णमुकुट, सुवर्णघट आदि में कथंचित् अभेद सम्बन्ध नहीं होता तो सुवर्ण मात्र के इच्छुक व्यक्ति सुवर्णमुकुट के नाश और सुवर्णघट के उत्पन्न होने पर मध्यस्थभाव में नहीं रह सकता। एतदर्थ द्रव्य और पर्याय में परस्पर कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता दोनों है।
__द्रव्य और पर्याय का यह भेदाभेद सम्बन्ध आगम सम्मत है। आगम साहित्य में कहीं पर द्रव्य और पर्याय में भिन्नता का प्रतिपादन हुआ है तो अन्यत्र कही अभिन्नता को भी मुख्यता दी गई है। यथा- भगवतीसूत्र'341 में कहा गया है कि 'अथिरे पलोट्ठइ णो थिरे पलोट्टइ' – अस्थिर पर्याय परिवर्तित होती है और स्थिर द्रव्य अपरिवर्तित रहता है। यहां पर स्पष्ट रूप से द्रव्य और पर्याय में भेद परिलक्षित होता है। अन्यत्र जब यह कहा गया कि आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है तो वहाँ द्रव्य और पर्याय में अभेद समर्थित है।1342 आत्मा द्रव्य है और सामायिक आत्मा की एक पर्याय है। फिर भी आत्मा को सामायिक से भिन्न नहीं माना गया है अर्थात् आत्मद्रव्य ही सामायिक और उसका अर्थ है। ऐसा ही एक प्रसंग आचारांग1343 में द्रष्टव्य है – 'जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया यहाँ पर भी आत्म द्रव्य से रहित पर्याय का अस्तित्व और पर्याय से रहित द्रव्य के अस्तित्व नहीं माना गया है।
1340 घट मुकुट सुवर्णहि अर्थिया, व्यय उतपति थिति पेखंत रे।
निज रूपई होवइ हेमथी, दुःख हर्ष उपेक्षावंत रे।। .............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/3 1341 भगवई, 1/440 1342 वही, 1/427 1343 आयारो, 1/5/104
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