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यहाँ आत्मद्रव्य और विज्ञान रूप आत्मपर्याय में अभेद दर्शाया गया है। परन्तु भगवती में आया सिय णाणे सिय अण्णाणे' कहकर आत्मद्रव्य और ज्ञान में भिन्नता का प्रतिपादन किया गया है।1344 इस प्रकार आगमों में भेद और अभेद उभय का स्वीकरण है। आगमों में वस्तु स्वरूप का विवेचन विभिन्न नयों से किया गया है। जब द्रव्यार्थिकनय की प्रधानता से विवक्षा की जाती है तब द्रव्य और पर्याय में अभेद प्रतीत होता है और जब पर्यायार्थिक नय को प्रधानता दी जाती है तब द्रव्य और पर्याय में भेद परिज्ञात होता है। भगवती1345 में जो आत्मा के आठ भेद दर्शाये गये हैं उनमें द्रव्यात्मा का वर्णन द्रव्य दृष्टि से और अन्य कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा का वर्णन पर्याय दृष्टि से किया गया
इस प्रकार द्रव्य और पर्याय परस्पर मिले हुए भी हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं रह सकता है। द्रव्य रहित पर्याय और पर्याय रहित द्रव्य की सत्ता संभव नहीं है।1346 कहा भी गया है -
दलं पज्जव विउअं दव्व विउत्ता पज्जवा नत्थि। उप्पादट्ठिइ भंगा हदि दविय लक्खणं एयं ।।1347
द्रव्य, गुण और पर्याय में तादात्मय है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि द्रव्य, गुण और पर्याय की अपनी सत्ता नहीं है। अस्तित्व की अपेक्षा से उनमें तादात्मय होने पर भी विचार की अपेक्षा से वे पृथक्-पृथक् भी हैं। बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि से व्यक्ति पृथक् नहीं है, फिर भी तीनों अवस्थाएं परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। 1348 उपाध्याय यशोविजयजी के शब्दों में बाल, तरूण आदि अवस्थाओं
1344 भगवइ, 12/206 1345 भगवतीसूत्र – 12/10/466 1346 जैनधर्म दर्शन - डॉ. मोहनलाल मेहता, पृ. 129 1347 सन्मतितर्क - गा. 1/12 1348 सागर जैन विद्याभारती, भाग-5 – प्रो. सागरमल जैन, पृ. 108
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