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भिन्न-भिन्न परिवर्तन या परिणमन को प्राप्त होते रहने पर भी द्रव्यत्व यथावत् रहता है। द्रव्य में होनेवाला यह परिवर्तन या परिणमन ही पर्याय है।1180 उमास्वाति ने तदभावः परिणामः कहकर परिणमन को अथवा प्रतिसमय बदलते रहने को ही पर्याय के रूप में अभिव्यंजित किया है।1181 पूज्यपाद के अनुसार भी द्रव्य का विकार अर्थात् परिणमन ही पर्याय है।1182 द्रव्य में एक अवस्था का उत्पाद और पूर्व अवस्था का व्यय रूप परिणमन सतत चलता रहता है। न्यायालोक की वृत्ति में जो भी उत्पन्न होती है और विनष्ट होती है तथा समग्र द्रव्य को व्याप्त करती है, उसे पर्याय कहा गया है।183 जयसेनाचार्य ने पर्याय का लक्षण व्यतिरेकी और क्रमभावी दिया है। 184 एक पर्याय दूसरी पर्यायरूप नहीं होने से पर्यायों में परस्पर व्यतिरेक है। पर्याय एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी ऐसे क्रम से होती हैं। उदाहरणार्थ मिट्टी में पिण्ड, कोश, कुशूल, घट आदि पर्यायें युगपत् नहीं पायी जाती हैं, किन्तु क्रम से होती हैं। इसलिए पर्यायें क्रमवर्ती कहलाती हैं। आशय यह है कि जो परिणति प्रथम समय में रहती है, वह दूसरे समय में नहीं होती है। प्रतिसमय क्रमशः परिवर्तन होता रहता है। एक पर्याय का स्थान दूसरी पर्याय लेती रहती है। इसलिए पर्याय को क्रमवर्ती कहा है।1185 वादिदेवसूरि ने भी द्रव्य के क्रमभावी धर्म को ही पर्याय के रूप में परिभाषित किया है।1186
1180 सागरजैन विद्याभारती, भाग-5 - प्रो. सागरमल जैन, पृ. 111 1181 तत्त्वार्थसूत्र - 5/41 182 गुण इति दव्वविहाणं दव्वविकारो हि पज्जवो भणिदो ...... सर्वार्थसिद्धि, पृ. 237 पर उद्धृत 1183 पर्येति उत्पत्ति-विपत्तिं-चाप्नोति पर्यवति वा व्याप्नोति समस्तमपि द्रव्यमिति पर्यायः पर्यवो वा।
........................ न्यायालोक तत्त्वप्रभावृत्ति, पृ. 203 1184 व्यतिरेकिणः पर्याया अथवा क्रमभूवः पर्याय इति पर्याय लक्षणम् ...... प्रवचनसार, गा. 93 की जयसेनाचार्य की
टीका
1185 परमात्मप्रकाश, गा. 1/57 1186 प्रमाणनयतत्त्वालोक, सू. 5/8
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