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________________ 410 पंचम अध्याय जैनदर्शन में पर्याय का स्वरूप एवं प्रकार उपाध्याय यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में पर्याय का सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत किया है। पर्याय की अवधारणा जैनदर्शन की एक विशिष्ट अवधारणा है। सामान्यतया सभी भारतीय दर्शनों में द्रव्य और गुण की चर्चा उपलब्ध होती है, परन्तु जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी दर्शन में पर्याय की चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। जैनदर्शन के अनुसार सत् परिणामीनित्य या उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है। द्रव्य अपने स्व जाति के गुणों का त्याग किये बिना प्रतिक्षण पूर्व अवस्था का त्याग करता रहता है और नवीन अवस्था को प्राप्त होता रहता है। वस्तु में नवीन अवस्था का उत्पाद और पूर्व अवस्था का व्यय सतत् चलता रहता है। उत्पाद–व्यय का यह सतत् प्रवाह ही पर्याय है। आचार्य अकलंक ने जो समग्रतः भेद अर्थात् नवीनता को प्राप्त होती है, उसे ही पर्याय के रूप में निरूपण किया है। 178 वस्तु का अपरिवर्तनशील पक्ष द्रव्य है तथा परिवर्तनशील पक्ष पर्याय है। दूसरे शब्दों में वस्तु की प्रत्येक दशा में बराबर अनुस्यूत रहनेवाला जो अन्वयीरूप है, वह द्रव्य है तथा जो बदलते रहने वाला विशेष रूप है, वह पर्याय है। 179 जीव नर, नारक रूप में बदलता रहता है और जीवत्व उन सबमें बराबर अनुस्यूत रहता है। इस उदाहरण में जीव के नर, नारक आदि विशेष रूप पर्याय हैं तथा जीवत्व द्रव्य है। पर्याय का स्वरूप एवं परिभाषा - जिस प्रकार जलती हुई दीपशिखा में जलनेवाला तेल प्रतिक्षण बदलता रहता है, परन्तु दीपक यथावत् जलता रहता है। उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय 1178 राजवार्तिक, 1/33/1/95/6 1179 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 240 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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