________________
पंचाध्यायी में कथित पर्याय के लक्षण में पर्याय के उपरोक्त सभी लक्षणों का समावेश हो जाता है। इसमें जो क्रमवर्ती, अनित्य, व्यतिरेकी, उत्पाद-व्ययरूप और कथंचित् ध्रौव्यात्मक होती है उसे पर्याय कहा है।1187
क्रमवर्ती :
क्रम से होना जिनका स्वभाव है उन्हें क्रमवर्ती कहा जाता है। द्रव्य और गुण में अनन्त पर्यायें होती हैं। परन्तु सभी पर्याय एक साथ नहीं होती हैं। एक पर्याय का नाश होने पर दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है। फिर उस दूसरी पर्याय का नाश होने पर तीसरी पर्याय उत्पन्न होती है। 188 इस प्रकार पूर्व-पूर्व पर्यायों का नाश होने पर उत्तरोत्तर पर्यायें क्रम से होती रहती हैं। प्रत्येक समय की पर्यायों में एक क्रम पाया जाने से पर्यायों को क्रमवर्ती कहते हैं। पर्यायों का ऐसा क्रम चालू रहने पर भी द्रव्य के स्वभाव का परित्याग नहीं होता है।
अनित्य :
पर्याय क्षणवर्ती होने से अनित्य हैं। प्रथम समय में जो पर्याय रहती है, वह दूसरे समय में नहीं रहती है। जो ज्ञान, वर्तमान समय में है,वही ज्ञान दूसरे समय में नहीं रहता है। इस प्रकार निरन्तर पर्यायें परिवर्तित होने से अनित्य है।
व्यतिरेकी :
व्यतिरेक = भेद ; अन्य-अन्य समय में होना। एक पर्याय दूसरी पर्याय रूप नहीं होती है। द्रव्य की जो प्रथम समय की पर्याय है, वह दूसरे समय में नहीं रहती है। किन्तु दूसरे समय में दूसरी ही पर्याय होती है। जो प्रथम समय का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव है, वही दूसरे समय में नहीं रहते हैं। इस प्रकार प्रतिसमय
1187 क्रमवर्तिनो ह्यनित्या अथ च व्यतिरेकिणश्च पर्यायाः
उत्पादव्ययरूपा अपि च ध्रौव्यात्मकाः कथंचिचच्च
पंचाध्यायी, 1/165
1188 पंचाध्यायी, 1/167, 168, 169
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org