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न होने के कारण अविनाशी कही जाती है। ऐसी सादि - नित्य पर्याय को ग्रहण करनेवाला नय सादिनित्य पर्यायार्थिक नय है । 279
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में सादि नित्य पर्याय को अपना विषय बनाने वाली दृष्टि को पर्यायार्थिक नय का तीसरा भेद बताया गया है । जैसे सिद्धावस्था 280 द्रव्यानुयोगतर्कणा281 में भी इस नय का विषय सिद्धावस्था ही बताई गई है। जीव की सिद्धपर्याय की आदि है, किन्तु अन्त नहीं है । जब जीव सर्व कर्मों को क्षय करता है, तब सिद्धावस्था प्रारम्भ होती है। अतः सादि है और तत्पश्चात् सदाकाल अवस्थित रहने से नित्य है। क्योंकि मुक्तजीव अन्तरंग और बहिरंग कर्मकलंक से मुक्त होते हैं। उनमें पुनः विकार उत्पन्न होने का कोई कारण ही नहीं होता है। जैसे - राजकुमार एक बार राजा बन जाने के बाद, फिर से राजकुमार कभी नहीं बन सकता। उसी प्रकार संसारी जीव एकबार सिद्ध बन जाने के बाद पुनः कभी संसारी नहीं बन सकता है। 282 सिद्धावस्था जीव की सादि नित्य पर्याय है, अन्य किसी द्रव्य की कोई भी पर्याय इस नय का विषय नहीं हो सकती है। क्योंकि अन्य द्रव्यों की कोई भी अवस्था सादिनित्य नहीं हो सकती है। या तो वे अनादिनित्य होती हैं या सादिसान्त होती हैं। 283
इस दूसरे पर्यायार्थिकनय में भी मात्र स्वोपज्ञ टब्बा में ही 'शुद्ध' शब्द रखा गया है । अन्यत्र कहीं भी शुद्ध शब्द का उल्लेख नहीं है। सिद्धावस्था जीव की शुद्धावस्था होने से यशोविजयजी ने 'शुद्ध' शब्द को पर्याय का विशेषण बनाया होगा । यहाँ शुद्ध शब्द पर्यायार्थिक नय का विशेषण तो कदापि नहीं हो सकता है । पर्यायार्थिक नय नित्यता की ओर दृष्टि करता ही नहीं है। अतः पर्याय ही शुद्ध और
1279 कम्मखयादुप्पो अविणासी जो हु कारणभावे
280 सादि नित्य पर्याय अरथो जिम सिद्धनो पज्जाउ रे
281 पर्यायार्थिकः सादिनित्यः सिद्धस्वरूपवत्
1282 जे राजपर्याय सरखो सिद्धपर्याय भाववो
283 द्रव्यगुणपर्यायनोरास- भाग 1
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अभयशेखरसूरि, पृ. 214
नयचक्र, गा. 200
. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6 / 3 द्रव्यानुयोगतर्कणा, पृ. 79 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/3 का टब्बा
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