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कारण ही नहीं रहता है। अतः मुकुटाकार के रूप में सुवर्ण की उत्पत्ति भी वास्तविक है। 53 सुवणार्थी व्यक्ति को घट का नाश और मुकुट का उत्पाद होते हुए दिखाई देने पर भी न तो दुःखी होता है और न ही सुखी होता है। परन्तु तटस्थबुद्धि से रहता है। क्योंकि वह मात्र सुवर्णार्थी होने से उसे सुवर्ण की ध्रुवता ही दिखाई देता है।854 यदि उसी समय सुवर्णत्व के रूप में ध्रुवता नहीं होती तो सुवर्णार्थी व्यक्ति को सुवर्ण घटनाश से दुःखी या मुकुट उत्पाद से सुखी होना चाहिए था। परन्तु दोनों ही स्थिति (घटनाश, मुकुट उत्पाद) में सुवर्णत्व के ध्रुव रहने से वह मध्यस्थभाव से रहता है। इससे यही ज्ञात होता है कि एक ही सुवर्ण द्रव्य में एक ही समय में घटाकार के रूप में व्यय, मुकुटाकार के रूप में उत्पाद और सुवर्णत्व के रूप में ध्रौव्य, ये तीनों लक्षण विद्यमान रहते हैं। एतदर्थ सर्वद्रव्य उत्पादादि तीनों लक्षणों से युक्त हैं।
जहां वैदिकदर्शन सत् को कूटस्थनित्य मानता है, वहां बौद्धदर्शन सत् को सर्वथा अनित्य मानता है। सांख्यदर्शन नित्यानित्यवाद को स्वीकार करते हुए पुरूष को नित्य और प्रकृति को परिणामी नित्य मानता है। जहां तक नैयायिक और वैशेषिक दर्शन का प्रश्न है, वे परमाणु, आत्मा आदि को नित्य और घटपटादि को अनित्य मानते हैं। किन्तु जैनदर्शन द्रव्य मात्र को परिणामी नित्य मानता है अर्थात् द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है।
केवल उत्पत्ति और व्यय का ही आधार हो, किन्तु स्थिति का आधार न हो, (जैसे घटपटादि) तथा केवल स्थिति का ही आधार हो, किन्तु उत्पाद और व्यय का आधार न हो (जैसे परमाणु, जीव, आकाश) ऐसा कोई भी द्रव्य लोक में दिखाई नहीं देता है, क्योंकि घटपटादि स्थूल पदार्थों में उत्पाद–व्यय होने पर भी मूल पदार्थ के रूप में ध्रुवता अवश्य रहती है। परमाणु जैसे नित्य पदार्थों में भी वर्णादि के रूपान्तर रूप में एवं भिन्न-भिन्न स्कन्धों के रूप में परिणमन अवश्य होता है। इसलिए घटाकार और मुकुटाकार आदि आकारों को न स्पर्श करने वाला केवल सुवर्ण द्रव्य
653 जे माटि हेममुकुटार्थी हर्षवंत थाइ, ते माटि मुकुटाकाराइं हेमोत्पत्ति सत्य थाई ............ वही, 7/3 654 इम हेममात्रार्थी ते काले न सुखवंत, न दुःखवंत थाई छइ स्थितपरिणामाइं रहइ छइ, ......वही 9/3
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