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यशोविजयजी ने प्रस्तुत कृति में ऊर्ध्वतासामान्य के भी पुनः दो भेद किए हैं 1403 समुचितऊर्ध्वतासामान्य
ओघऊर्ध्वतासामान्य
ओघ ऊर्ध्वतासामान्य
यशोविजयजी ने द्रव्य में निहित अपने - अपने सर्व गुण - पर्यायों को प्राप्त करने की सत्तागत शक्ति को ओघशक्ति कहा है 1404 ओघ से तात्पर्य है सामान्य रूप से रहनेवाली ऊर्ध्वतासामान्य नामक शक्ति । प्रत्येक द्रव्य में त्रैकालिक गुण पर्यायों को प्राप्त करने की जो योग्यतारूप सामान्य शक्ति है, वह ओघऊर्ध्वतासामान्य है। मृद्द्रव्य में रही हुई पिंड - स्थास - कोश- कुशूल - घट - कपाल आदि पर्यायों को प्राप्त करने की योग्यता ओघऊर्ध्वतासामान्य है । इसी प्रकार तिल में तेल की, कपास में पट की, बीज में वृक्ष की जो योग्यतारूप शक्ति है, वह ओघशक्ति है।
1403 हिवइ उर्ध्वतासामान्यशक्तिना 2 भेद देखाडइ छइ 1404 शक्तिमात्र ते द्रव्य सर्वनी, गुण पर्यायनी लीजइं रे
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पिंड-स्थास आदि पर्यायों में मृत्तत्व स्पष्ट रूप से दिखाई देता है । किन्तु कुछ द्रव्यों में कालक्रम से बदलने वाली पर्यायों में (भूत - भावी पर्यायों में ) मूलभूत द्रव्यशक्ति स्पष्ट रूप से परिज्ञात नहीं होती है। जैसे तृण में घृत की शक्ति स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देती है। यदि गोभुक्ततृणपुंज में घृत की शक्ति नहीं होती तो कालान्तर में क्रमशः उत्पन्न होनेवाली दूध-दही - मक्खन आदि पर्यायों में भी घृत नहीं होता । परन्तु दूध-दही-मक्खन आदि से घृत बनता है। इसलिए तृण में घृत की शक्ति तिरोभाव रूप से अवश्यमेव विद्यमान रहती है।
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/6 का टब्बा द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/6 का टब्बा
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