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समुचितऊर्ध्वतासामान्य -
कारणभूत द्रव्य में कार्य का अतिशय निकटस्वरूप प्रगट होने की जो विशेष प्रकार की शक्ति पाई जाती है, वह समुचित शक्ति कहलाती है।1405 समुचित का अर्थ है व्यवहार करने योग्य ।1406 जब द्रव्य में कार्य प्रगट होने के लक्षण प्रगट रूप से दिखाई देने लग जाते हैं, तब द्रव्य में रही हुई कार्य प्रगट करने की शक्ति समुचित शक्ति कहलाती है। तृण में रही हुई घृतशक्ति ओघशक्ति है और दूध-दही आदि में रही हुई घृत की शक्ति समुचित शक्ति है। तृण में घृत के कोई बाह्य चिन्ह प्रगट रूप से दिखाई नहीं देने से वह व्यवहार करने योग्य नहीं है। परन्तु दूध-दही आदि में घृत के बाह्य चिन्ह दिखाई देने से वह व्यवहार करने योग्य हैं। इसी प्रकार कपास में पट की शक्ति ओघशक्ति है और तन्तु में पट की शक्ति समुचित शक्ति है। मरीचि के भव में तीर्थंकर होने की योग्यता ओघशक्ति है और महावीर के भव में जन्म से 42 वर्ष तक तीर्थकर होने की योग्यता समुचितशक्ति है। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि दूर-दूर कारणों में अर्थात् परंपरा कारणों में रही हुई कार्य की शक्ति जिसमें कार्य प्रगट होने के चिन्ह दिखाई नहीं देते हैं, वह ओघशक्ति है एवं निकटवर्ती कारणों में अर्थात् अनन्तर कारणों में रही हुई कार्यशक्ति जिसमें कार्य प्रगट होने के चिन्ह स्पष्ट दिखाई देते हैं, वह समुचितशक्ति है। 1407
इस ओघशक्ति और समुचितशक्ति को समझाने के लिए यशोविजयजी ने लौकिक दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। तृण में घृत की शक्ति विद्यमान है। अन्यथा तृण भक्षण करके गाय जो दूध देती है, उसमें घृत कहाँ से आ सकता है ? इस प्रकार अनुमान प्रमाण से तृण में घृत की शक्ति सिद्ध होने पर भी 'तृण में घृत है' ऐसा
1405 कारणरूप निकट देखीनइं, समुचित शक्ति कहीजइ रे .. ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/6 का उत्तरार्ध 1406 समुचित कहतां-व्यवहारयोग्य
............. वही गा. 2/6 का टब्बा 1407 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, –धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 65
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