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विशेषात्मक संपूर्ण वस्तु का जो ज्ञान होता है, वह वस्तु के वस्तुत्वगुण के कारण ही होता है।1011
3. द्रव्यत्व -
द्रव्य का जो भाव है, वह द्रव्यत्व है। अपने-अपने प्रदेशों के समूहों के द्वारा अखण्डवृत्ति से जो स्वाभाविक और वैभाविक पर्यायों को प्राप्त (द्रवण) करता है, प्राप्त करेगा और भूतकाल में प्राप्त करता आया है, वह द्रव्य है।012 इसका अर्थ यह हुआ कि द्रव्य त्रिकाल नित्य होते हुए भी विभिन्न पर्यायों को प्राप्त करते रहने से परिणमनशील है। द्रव्य के रूप में सदा ध्रुव होने पर भी पर्यायों के रूप में उसमें उत्पाद और व्यय चलता रहता है। यह उत्पादव्ययध्रौव्यरूप सत् ही द्रव्य का लक्षण है, जो गुण और पर्यायों में व्याप्त रहता है।013 सत् ध्रौव्यरूप से गुण में और उत्पाद-व्यय के रूप में पर्याय में व्याप्त रहता है। जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य एकसा न रहता है और उसकी पर्यायें बदलती रहती हैं, वह द्रव्यत्व गुण है। 1014 द्रव्यत्व गुण के कारण ही द्रव्य विभिन्न पर्यायों के रूप में द्रवित होता रहता है, अर्थात् द्रव्य में उत्पाद-व्यय होता रहता है। द्रव्यत्वगुण यही सूचित करता है कि द्रव्य त्रिकाल अस्तिरूप होने पर भी सदा एक सदृश नहीं रहता है। परन्तु प्रतिसमय बदलनेवाला परिणमनशील है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यत्व' गुण को परिभाषित करते हुए लिखा है कि द्रव्यत्व का अर्थ है -द्रवीभाव होना अर्थात् एक अवस्था से दूसरी अवस्था में द्रवित होना। गुण और पर्याय के आधार पर अभिव्यक्त होनेवाली एक प्रकार की जाति
1011 अत एव अवग्रहइं-सामान्यरूप सर्वत्र भासई छइं .................... वही, गा. 11/1 का टब्बा 1012 द्रव्यस्य भावः द्रव्यत्वं, निजनिजप्रदेशसमूहै अखण्डवृत्या स्वभाव-विभाव पर्यायान् द्रवति . ...... आलापपद्धति, सूत्र 96 1013 सद्रव्यलक्षणम् ।। सीदति स्वकीयान् गुणपर्यायाव् व्याप्नोति इति सत् ........ आलापपद्धति, सू. 97 1014 कार्तिकेयानुप्रेक्षा का विवेचन- पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ. 172
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