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उपरोक्त समस्त चर्चा के निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है यशोविजयजी के पूर्व जैन दार्शनिकों ने निम्न चार बिन्दुओं के आधार पर गुण के स्वरूप को निर्देशित किया है -
1. जो द्रव्य के आश्रित रहते हैं- वे गुण हैं। 2. द्रव्य का भेदक धर्म गुण है। 3. द्रव्य की अन्वयी विशेषताएँ गुण हैं। 4. द्रव्य के सहवर्ती या सहभावी तत्त्व ही गुण हैं।
प्रथम परिभाषा द्रव्य और गुण में आश्रय-आश्रयी सम्बन्ध के द्वारा दोनों के मध्य भेद का संकेत करती है और भेदवादी न्याय और वैशेषिकदर्शन के निकट है।988 दूसरी परिभाषा द्रव्य के विशेष भेदक गुण बताती है, क्योंकि एक द्रव्य को अन्य द्रव्य से पृथक् करनेवाले उस द्रव्य के ज्ञानादि विशेष गुण ही हो सकते हैं। तीसरी और चौथी परिभाषा में विशेष रूप से अन्तर नहीं है। गुण वही होता है, जो द्रव्य की सहभावी विशिष्टताओं को सूचित करता है।
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में उपाध्याय यशोविजयजी ने गुण को परिभाषित करने के लिए हरिभद्र की टीकाओं के साथ-साथ नयचक्र और आलापपद्धति का अनुसरण किया है। उन्होंने वस्तु के सहभावी धर्म को ही गुण के नाम से अभिहित किया है।989 जब से द्रव्य है और जब तक द्रव्य रहेगा तब तक रहने वाले धर्म सहभावी धर्म है
और द्रव्य के ये सहभावी धर्म ही गुण कहे जाते हैं। जैसे – जीव का उपयोगगुण, पुद्गल का ग्रहणगुण, धर्मास्तिकाय का गतिहेतुत्वगुण, अधर्मास्तिकाय का स्थितिहेतुत्वगुण, आकाशास्तिकाय का अवगाहनाहेतुत्वगुण, काल का वर्तनाहेतुत्वगुण990 आदि। ये गुण द्रव्य की शक्तिरूप से, सदा विद्यमान रहते हैं।
988 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा – डॉ. सागरमल जैन, पृ. 61 98 धरम कहीजइ गुण-सहभावी, क्रमभावी पर्यायो रे .. ................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/2 990 सहभावी कहतां-यावद्रव्यभावी जे धर्म, ते गुण कहिईं जिस जीवनो उपयोग गुण ...
............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/2 का टब्बा
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