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द्वितीय वादमाला में वस्तुलक्षण, सामान्यवाद, विशेषवाद, इन्द्रियवाद, शक्तिपदार्थवाद, अदृष्ट सिद्धिवाद, इन छह वादस्थलों का निरूपण है।
तृतीय वादमाला में चित्ररूपवाद, लिंगोपहित-लैंगिक-भानवाद, द्रव्यन्यायहेतुता-विचारवाद, सुवर्णतैजसत्वातैजसवाद, अंधकारभाववाद, वायुस्पर्शन–प्रत्यक्षवाद और शब्दनित्यत्वानित्यत्ववाद - इन सात वादस्थलों का समावेश है।
13. अनेकान्त व्यवस्था :
इस ग्रन्थ में नैगम आदि सात नयों के तर्कसंगत प्रतिपादन के साथ-साथ वस्तु के अनेकान्तिक स्वरूप का निरूपण किया गया है।
14. अस्पृशद्गतिवाद :
। इसमें मुक्तात्मा का तिर्यग्लोक से लोकान्त पर्यन्त के मध्यवर्ती आकाश प्रदेशों के स्पर्श बिना कैसे गमन होता है, इसका स्पष्टीकरण है। 15. आत्मख्याति :
इस ग्रन्थ में उपाध्यायजी ने आत्मा के विभु और अणु परिमाण का निराकरण किया है।
16. आर्षमीय चारित्र :
यह उपाध्याय यशोविजयजी द्वारा रचित आर्षमीय चारित्र शान्तरस प्रधान महाकाव्य है। वर्तमान में इस काव्य के मात्र चार सर्ग ही उपलब्ध हुए हैं। संभवतः ऐसा हो सकता है कि उपाध्यायजी ने ऋषभदेव भगवान के चरित्र का आधार बनाकर इस काव्य को लिखने का पुरूषार्थ प्रारम्भ किया हो और किसी अपरिहार्य कारण से महाकाव्य की रचना अधूरी रह गई हो। इस महाकाव्य में चित्रित वृतान्तों से ऐसा प्रतीत होता है कि कवि ने महाकाव्य की विषयवस्तु और प्रस्तुति दोनों के लिए 'त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित्र' को मुख्य आधार बनाया है। इस महाकाव्य के नायक ऋषभदेव है। प्राप्त चार सर्गों के 459 श्लोकों में अविशयोक्ति, अर्थान्तरन्यास,
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