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यशोविजयजी की दृष्टि में गुण का स्वरूप -
आगम साहित्य में सर्वप्रथम 'उत्तराध्ययनसूत्र में द्रव्य गुण और पर्याय के स्वरूप की चर्चा हुई है। उसमें द्रव्य को गुणों का आश्रयस्थल और गुण को द्रव्य के आश्रित रहनेवाले धर्मों के रूप में व्याख्यायित किया है। वस्तुतः द्रव्य, गुण और पर्याय का आधार है। यहाँ द्रव्य को आधार और गुण एवं पर्याय को आधेय के रूप में माना है। तत्त्वार्थसूत्र में भी गुण को परिभाषित करते हुए 'द्रव्याश्रयानिर्गुणा गुणा974 ही कहा गया है। इस सूत्र में विशेषरूप से यह बताया गया है कि गुण द्रव्य में रहते हैं, परन्तु उनके कोई गुण नहीं होते हैं। वे गुणरहित होते हैं। यदि गुण का भी गुण मानेंगे तो फिर अनवस्थादोष का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा।
द्रव्य का जो अविनाशी लक्षण है या द्रव्य जिस लक्षण का त्याग कदापि नहीं करता है, वह गुण है। गुण द्रव्य का विधान है अर्थात् उसका स्वलक्षण है। एक द्रव्य अपने स्वलक्षण के कारण ही अन्य द्रव्य से पृथक् अस्तित्व रखता है। उदाहरणार्थ जीव द्रव्य अपने ज्ञानादि गुणों के कारण पुद्गल आदि द्रव्यों से भिन्न है तथा इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य भी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श इन गुणों के कारण जीव आदि अन्य द्रव्यों से भिन्न अपनी पहचान रखता है। यदि ज्ञानादि भेदकगुण न हो तो द्रव्यों में सांकर्य हो जायेगा। अतः द्रव्य में भेद करनेवाला धर्म भी गुण है।75 आचार्य देवसेन ने भी लगभग इसी रूप में गुण को स्पष्ट किया है। उनके अनुसार जो विवक्षित द्रव्य को द्रव्यान्तर से पृथक् करते हैं, वे गुण हैं।976 गुण की उपरोक्त परिभाषा ज्ञानादि विशेष गुणों को ही परिलक्षित करती है, परन्तु द्रव्य में विशेष गुणों के अतिरिक्त द्रव्यत्व, अस्तित्व आदि सामान्य गुण भी पाये जाते हैं, जो सभी द्रव्यों में समान रूप से विद्यमान रहते हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने अपने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में गुण
उत्तराध्ययनसूत्र, 28/6
973 गुणाणमासओ दव्वं 974 तत्त्वार्थसूत्र, 5/40 975 द्रव्यं द्रव्यान्तराद् येन विशिष्यते स गुणः । .... 976 गुण्यते पृथक क्रियते द्रव्यं द्रव्याद्यैः ते गुणाः
सर्वार्थसिद्धि, 5/38/600
आलापपद्धति, 1/93
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