________________
348
भी किया है।67 सन्मतिप्रकरण88 में गुण शब्द के अन्य अर्थ के साथ उपरोक्त अर्थ भी किया गया है।
राजवार्तिक.69 में गुण शब्द के विभिन्न अर्थों को उदाहरण से स्पष्ट किया गया है। जैसे रूपादि गुण में गुण का अर्थ रूपादि इन्द्रियों के विषय है, दोगुणावयव, त्रिगुणावयव में गुण का अर्थ भाग है, गुणज्ञ साधु में गुण का अर्थ उपकार है, गुणवानदेश में गुण से तात्पर्य धान्य आदि द्रव्य है। जिस देश में धान्य की उत्पत्ति अच्छी होती है, वह गुणवानदेश कहलाता है।
आचार्य हरिभद्र', आचार्य हेमचन्द्र प्रभृति ने प्रायः करके गुण शब्द का प्रयोग सद्गुण (Virtues) या अच्छाइयाँ के अर्थ में ही किया है। अणिमा, महिमा आदि सिद्धियों के लिए भी गुण शब्द को प्रयुक्त किया गया है।972
इस प्रकार संक्षेप में ऐसा कहा जा सकता है कि आचारमीमांसा के संदर्भ में गुण शब्द का प्रयोग प्रायः सम्यक् ज्ञान, दर्शन, संयम, तप आदि सद्गुणों या अच्छाइयों के लिए हुआ है। जबकि तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में, प्रायः गुण शब्द का प्रयोग भाग, अंश और द्रव्य का धर्म या स्वभाव या शक्ति अंश के रूप में किया गया है। प्रस्तुत विवेचन के सन्दर्भ में 'गुण' शब्द से द्रव्य के धर्म, स्वभाव या शक्ति (विशेष) ही अपेक्षित है।
ब) प्रवचनसार, 21, 5
967 अ) पंचास्तिकाय, 3-4, 968 सन्मतिप्रकरण, 3/12 969 राजवार्तिक, 5/34/2 970 योगशतक, 15, 37, 45 971 योगशास्त्र, 2/83 972 वसुनन्दिश्रावकाचार, गा. 513
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org