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है और जितना भाग बनना शेष है, उसमें अवयवों की वैयक्तिक सत्ता का नाश होने वाला भी है।698
उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार किसी भी क्षण द्रव्य उत्पाद आदि से रहित नहीं होता है, इस बात को सन्मतिप्रकरणसूत्र के गा. 2/35, 36 के आधार पर समझाया है।999 जब आत्मा शरीर और शरीरगत संघयण, संस्थान, अंगोपांग आदि का त्याग करके सिद्धावस्था को प्राप्त करती है, उस समय भवस्थकेवलज्ञान भी संघयण आदि की तरह नष्ट हो जाता है। क्योंकि देहस्थ अवस्था में देह और आत्मप्रदेशों में क्षीर-नीरवत संबंन्ध होने से देह आदि पर्याय के नष्ट होने से उस रूप आत्मा का भी नाश हो जाता है और आत्मा केवलज्ञान रूप होने से उस दैहिक अवस्थावाला केवलज्ञान भी नष्ट होता जाता है।} सिद्धावस्था सम्बन्धी अशरीरभावना केवलज्ञान उत्पन्न होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि मुक्तिगमन के समय में भी जीवद्रव्य उत्पाद आदि त्रिलक्षणों से युक्त होता है। संसारावस्था सम्बन्धी शरीरभाववाला केवलज्ञान अर्थात् भवस्थ केवलज्ञान नष्ट हो जाता है तथा सिद्धावस्था सम्बन्धी अशरीरभाव वाला अर्थात् सिद्धस्थ केवलज्ञान उत्पन्न होता है एवं सामान्य रूप से केवलज्ञान दोनों ही स्थिति में ध्रौव्य रहता है। 01
इसी आशय से (केवलज्ञान में भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य घटित होने से} आगमशास्त्रों में केवलज्ञान के दो भेद किये हैं – भवस्थ केवलज्ञान और सिद्धस्थ
698 सन्मतिप्रकरण, पं. सुखलालजी, पृ. 82 699 जे संघयणईआ, भवत्थकेवलि विसेसपज्जाया।
ते सिज्झमाणसमये, ण होति विगयं तओ होई।। सिज्झत्तणेण य पुणो, उप्पण्णो एस अत्थपज्जाओ। केवलभावं तु पडुच्च, केवलं दाइअं सुत्ते
सन्मतिप्रकरण, गा. 2/35,36 700 एणइ भावइं भासिउं सम्मतिमांहि ए भाव रे
संघयणादिक भवभावथी, सीझंता केवल जाई रे ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/14 701 ते सिद्धपणइं वली उपजइ, केवलभावइ छइ तेह रे .................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/15
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