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(चरम समय में ही) मानने पर पूर्वपर्याय का नाश हो जाने से तथा नवीन पर्याय की उत्पत्ति नहीं होने से द्रव्य असत् हो जायेगा और कार्य सदा अनुत्पन्न ही रहेगा।96 क्योंकि प्रतिसमय में घटपटादि कार्य की उत्पत्ति कुछ-कुछ अंश में नहीं होती है तो मात्र चरम समय में संपूर्ण कार्य कैसे उत्पन्न हो सकता है ? कार्य तो अनुत्पन्न ही रहेगा। इसलिए प्रतिसमय जैसे-जैसे पूर्वपर्याय का नाश होता है, वैसे-वैसे अंश-अंश के रूप में घटपटादिकार्य की उत्पत्ति भी होती है। द्रव्य के पारिणामिक स्वभाव के कारण प्रतिसमय उत्पाद और नाश होता है। ध्रुवता प्रत्यक्षरूप से अनुभवसिद्ध है। अतः उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक सत् ही द्रव्य का वास्तविक लक्षण है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने अपने इस मत के समर्थन के लिए सन्मतिप्रकरण सूत्र की निम्न गाथा को उद्धृत किया है। यथा97
उप्पज्जमाणकालं, उप्पण्णं ति विगयं विगच्छंतं।
दवियं पण्णवयंतो, तिकालविसयं विसेसइ।। उत्पद्यमान द्रव्य को उत्पन्न हुआ और नश्यमान द्रव्य को नष्ट और नष्ट हो रहा है- इस प्रकार कहने वाला पुरूष द्रव्य को एक ही समय में त्रिकाल के विषय रूप से विशिष्ट बनाता है अर्थात् प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य की त्रिकालिक स्थिति घटित होती है। इस गाथे के भावार्थ को पं. सुखलालजी ने मकान के उदाहरण से समझाया है। जब मकान की निर्माण क्रिया चल रही होती है, उस समय मकान संपूर्ण मकान के रूप में उत्पद्यमान है। उस मकान का जितना भाग बन गया है, उतने भाग की अपेक्षा से मकान उत्पन्न है और जितना भाग बनना शेष है उतने शेष भाग की अपेक्षा से मकान उत्पत्स्यमान है। इसी तरह ईंट आदि निर्माण के अवयवों की स्वतन्त्र सत्ता का नाश भी हो रहा है। मकान का जितना भाग निर्मित हो चुका है उसमें ईंट आदि अवयवों की स्वतन्त्र सत्ता का नाश हो गया
696 उत्पत्ति नहीं जो आगलिं, तो अनुत्पन्न ते थाइ रे
जिम नाश विना अनिष्ट छइ, पहिलां तुझ किम न सुहाई ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/18 697 सन्मतिप्रकरणसूत्र, गा. 3/37
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