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होते हैं, किन्तु सामान्य गुणों की अपेक्षा से भी कुछ विशिष्ट गुण होते हैं जो द्रव्य के स्वरूप का निर्धारण करते हैं। गुण, द्रव्य के स्वरूप के नियामक हैं। इसी प्रकार कोई भी द्रव्य पर्यायों से भी पृथक् नहीं है। पर्यायें द्रव्य और गुणों की विभिन्न अवस्थाओं की सूचक है। इस प्रकार द्रव्य, गुण और पर्यायों का एक समन्वित स्वरूप है। सामान्य व्यवहार की अपेक्षा से हम द्रव्य, गुण और पर्याय को अलग-अलग मानते हैं। किन्तु ये तीनों एक ऐसी संरचना है जिसे विश्लेषणपूर्वक जाना तो जा सकता है, लेकिन इन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता है। सामान्यतया जैनदर्शन में अपने विशिष्ट गुणों और पर्यायों के आधार पर द्रव्यों की अलग-अलग पहचान की जाती है। अतः यह हमें स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि द्रव्य, गुण और पर्याय को हम चाहे वैचारिक स्तर पर भिन्न-भिन्न करके देखें, किन्तु सत्ता के स्तर पर वे तीनों एक हैं। द्रव्य को उसके गुण-पर्यायों से अलग करके देखा भी जाये तो भी इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। प्रस्तुत अध्याय में हमने द्रव्य, गुण और पर्याय का पृथक-पृथक् विवेचन तो किया है, किन्तु यह विवेचन सत्ता के आधार पर न होकर विचार के स्तर पर ही है।
इस अध्याय के अन्त में हमने यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि धर्मास्तिकाय आदि षड्द्रव्यों की क्या उपयोगिता है। अतः अध्याय के अन्त में प्रत्येक द्रव्य की सामान्य और विशेष उपयोगिता को स्पष्ट करने का प्रयास भी किया है। वस्तुतः छहों द्रव्य अलग-अलग होकर भी एक दूसरे के सहयोगी हैं और उनके पारस्परिक सहयोग से ही इस विश्व का अस्तित्व है।
प्रस्तुत अध्याय में सबसे महत्त्वपूर्ण चर्चा जो उपाध्याय यशोविजयजी ने की है वह कालद्रव्य के अस्तित्व को लेकर की है। उपाध्याय यशोविजयजी ने कालद्रव्य की समीक्षा करते हुए कहा है कि जिस प्रकार गति, स्थिति आदि के माध्यम के रूप में धर्म, अधर्म द्रव्यों की कल्पना की जाती है, उसी प्रकार वर्तना के माध्यम के रूप में कालद्रव्य की कल्पना की जाती है। हमने विस्तार से इस बात की चर्चा की है कि चाहे परिणमनशीलता के माध्यम के रूप में काल को स्वतंत्र द्रव्य माना जाये किन्तु
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