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________________ ___513 काल को पर्याय संपृथक् करके नहीं देखा जा सकता है। क्योंकि पर्याय परिणमनशीलता से पृथक् नहीं है। काल पर्याय रूप है और पर्याय कालरूप है। इस अध्याय के अन्त में हमने जीव और पुद्गल के पारस्परिक सम्बन्ध को सिद्ध करते हुए यह बताया है कि चाहे प्रत्येक द्रव्य उपादान के रूप से एक दूसरे से स्वतंत्र और पृथक् हों, किन्तु कार्य-कारण की व्यवस्था में निमित्त का महत्त्व सर्वविदित है। निमित्त के बिना उपादान सक्रिय नहीं होता है। कार्यकारण की व्यवस्था में निमित्त और उपादान दोनों ही समतुल्य होते हैं। सामान्यतया निश्चयवादियों की यह अवधारणा की कोई भी द्रव्य स्वपर्यायों में ही परिणमन करता है, सत्य है। किन्तु वह पर पर्यायों से भी प्रभावित भी होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो संसार अवस्था में एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से प्रभावित होता भी है और प्रभावित करता भी है। सत्ता के स्तर पर प्रत्येक द्रव्य एक दूसरे से स्वतंत्र है, किन्तु जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में बताया गया है, प्रत्येक द्रव्य एक दूसरे से उपकृत भी होता है और उपकार करता भी है। यहां तक कि जीवद्रव्य भी पारस्परिक उपकार उपकृत भावों से रहित नहीं है। यही बात द्रव्य के सम्बन्ध में सम्यक् समझ की परिचायक है। अन्य दर्शनों से जैनदर्शन के द्रव्य की समानता और विषमता : जैनदर्शन के अनुसार सत् का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है। जो सदा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है, वही द्रव्य है। अखण्ड द्रव्य में उत्तर पर्याय का प्रादुर्भाव उत्पाद है। जैसे - मिट्टी से घट का बनना। पूर्व पर्याय का विनाश व्यय है। जैसे- मिट्टी के पिण्डाकार का नाश। इस प्रकार पूर्व पर्याय का विनाश तथा उत्तर पर्याय का उत्पाद होने पर भी अपनी जाति को न छोड़ना ध्रौव्य है। जैसे पिण्ड आकार और घट दोनों ही अवस्थाओं में मिट्टीपना ध्रुव है। प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय उत्तर अवस्था से उत्पन्न, पूर्व अवस्था से व्यय और द्रव्यत्व से ध्रौव्य रहता है। इस प्रकार द्रव्य परिवर्तित होकर भी अपरिवर्तनशील है अथवा बदलकर भी नहीं बदलता है। अव्स्थान्तरण या पर्यायान्तरण रूप में प्रतिक्षण परिवर्तित होने पर भी वस्तु वही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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