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मान्यता के अनुरूप ही अनेकान्तिक दृष्टि से सत्ता के परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील पक्ष को समन्वित किया गया है। यही कारण है कि प्रस्तुत कृति दर्शन और विशेष रूप से जैनदर्शन के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।
ग्रन्थ की विषयवस्तु एवं उसकी उपादेयता
प्रथम ढाल -
महोपाध्याय यशोविजयजीकृत 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के प्रथम ढाल में चार प्रकार के अनुयोगों का कथन करने के पश्चात् चरणकरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग को मुख्य अनुयोगों के रूप में महत्व दिया गया है। इन दोनों अनुयोगों में भी द्रव्यानुयोग, जो मोह और अज्ञान को विनष्ट करने में रामबाण औषधि के समान हैसको अतिशय मुख्यता दी गई है। इस हेतु से यशोविजयजी ने द्रव्यानुयोग के अभ्यास को परमावश्यक बताया है। इस योग के अभ्यास के अभाव में चरणकरणनुयोग भी विशेष लाभकारी सिद्ध नहीं होता है।
__अतः द्रव्यानुयोग के ज्ञान की प्राप्ति हेतु चरणकरणानुयोग को गौण करना पड़े अर्थात् आधाकर्मी आहार आदि दोषों का सेवन करना भी पड़े तो भी तत्त्वतः दोष नहीं लगता हैं, क्योंकि द्रव्यानुयोग श्रेष्ठ है, साध्य है, जबकि चरणकरणानुयोग द्रव्यानुयोग को साधने के लिए साधन है। इस प्रकार द्रव्यानुयोग की महत्ता पर प्रकाश डालकर सतत द्रव्यानुयोग के अभ्यास के लिए प्रेरणा दी है।
द्रव्यानुयोग का अभ्यास शुक्लध्यान के द्वारा केवल ज्ञान को प्रदान करने वाला होने से साधक को चाहिए कि वह स्वयं द्रव्यानुयोग के अध्ययन के माध्यम से गीतार्थ बने और ऐसा संभव नहीं होने पर गीतार्थगुरू की निश्रा में विचरण करे। द्रव्यानुयोग के ग्रन्थों के अध्ययन की परमावश्यकता को सूचित करने के लिए यशोविजयजी ने सन्मतितर्क, उपदेशपद, पंचकल्पभाष्य आदि ग्रन्थों के साक्षी पाठ भी
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