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जैन दार्शनिक साहित्य में प्रस्तुत ग्रन्थ का स्थान और महत्त्व :
__ किसी भी धर्म के आचार का आधार उसकी तत्त्वमीमांसा होती है। यह सत्य है कि कभी तात्विक मान्यताओं के आधार पर आचार मार्ग का प्रस्थापन किया जाता है तो कभी आचार मार्ग के अनुकूल तत्त्वमीमांसा को प्रस्तुत करने का प्रयत्न होता है। विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि जैनदर्शन की तत्त्वमीमांसा आचारशास्त्र पर खड़ी है। यही कारण था कि जैनों ने कूटस्थ नित्य आत्मवाद और आत्मोच्छेदवाद दोनों को अस्वीकार करके अपनी मूलभूत मान्यता उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक सत् को आधार बनाकर तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में परिणामीनित्यतावाद की स्थापना की और इसके आधार पर सत्ता की द्रव्य रूप अपरिणमनशीलता और पर्यायरूप परिणमनशीलता को महत्त्व दिया।
उपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' नामक इस कृति में भी परिणामी नित्यवाद को स्थान दिया और उन्होंने यह माना कि द्रव्य कभी भी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होता है। फिर भी पर्यायरूप परिवर्तन को प्राप्त होता रहता है। संक्षेप में कहें तो प्रस्तुत कृति भी इसी तत्त्व को स्थापित करती है कि सत् परिवर्तनशील होकर भी नित्य है। सत्ता द्रव्य के रूप में वही रहती है, किन्तु पर्याय के रूप में परिवर्तित होती रहती है। द्रव्य सत्ता का शाश्वत पक्ष है और पर्याय अशाश्वत पक्ष है। इस प्रकार प्रस्तुत कृति सत्ता के अपरिवर्तनशील और परिवर्तनशील दोनों पक्षों को स्वीकार करती है। संक्षेप में कहें तो प्रस्तुत कृति के लेखन का मुख्य आधार भी यही रहा है कि द्रव्य बदलकर भी वही रहता है। पर्याय पलटती है और द्रव्य इन पलटती हुई पर्यायों में भी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होता है। यही इस ग्रन्थ की मूलभूत स्थापना है।
इस प्रकार प्रस्तुत कृति दर्शन के क्षेत्र में कूटस्थ नित्यतावाद और सतत परिवर्तनशील सत्तावाद के मध्य समन्वय स्थापित करती है। जैनदर्शन सम्मत परिणामी नित्यतावाद को प्रस्तुत करती है। इस कृति में जैनदर्शन की मूलभूत
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