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इसलिए गुण द्रव्य से सर्वथा भिन्न नहीं है। फिर भी गुण को इसलिए भिन्न माना गया है कि द्रव्य ध्रुवशील है। और गुण परिवर्तनशील है। गुण और पर्याय पारमार्थिक दृष्टि से एक ही हैं। गुण द्रव्य का सहभावी धर्म है और पर्याय क्रमभावी धर्म है। अतः किसी अपेक्षा से द्रव्य-गुण-पर्याय परस्पर अभिन्न भी है। उपाध्याय यशोविजयजी ने इस भिन्नाभिन्न सम्बन्ध को समझाने के संदर्भ में स्यादवाद, सप्तभंगी और नयवाद आदि की विस्तृत चर्चा की है। . ___द्रव्य-गुण-पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कार्य-कारणवाद की भी संक्षेप में चर्चा की है। नैयायिकों ने कारण में कार्य को सर्वथा अविद्यमान मानकर असत्कार्यवाद को और सांख्य आदि अभेदवादी दर्शनों ने कारण में कार्य को विद्यमान मानकर सत्कार्यवाद को स्वीकार किया है। उपाध्यायजी ने द्रव्य में पर्याय की उत्पत्ति असत्कार्य है या सत्कार्य है ? इस प्रश्न के उत्तर में सतासत् कार्यवाद की स्थापना की है। कारण में कार्य अव्यक्त रूप से विद्यमान होने से सत् है तथा कारण में कार्य व्यक्त रूप से विद्यमान नहीं है, इस अपेक्षा से असत् है। 4. दिगम्बर आचार्य देवसेनकृत नयविभाजन की समीक्षा -
नयवाद जैनदर्शन का विशिष्ट सिद्धान्त है। वर्तमान काल में नैगम आदि सात नय दिगम्बर और श्वेताम्बर आदि दोनों ही परंपरा में प्रचलित है। परन्तु प्राचीन समय में सात सौ नयों की परंपरा भी प्रचलित थी, ऐसा उल्लेख आवश्यक नियुक्ति और विशेषावश्यक भाष्य में मिलता है। द्वादशारनयचक्र में विधि नियम आदि 12 नयों की अन्य परंपरा का भी उल्लेख मिलता है। परन्तु दिगम्बर आचार्य देवसेन ने प्रचलित परंपरा से भिन्न स्वकल्पना से नवीन परंपरा को खड़ी की है। तर्कशास्त्र की दृष्टि से द्रव्यार्थिक आदि नौ नय एवं तीन उपनय तथा अध्यात्मदृष्टि से निश्चय और व्यवहारनय, ऐसे देवसेनकृत नय के विभाजन का तार्किक समालोचना करके दिगम्बर सम्मत नयविभाजन को सापेक्ष रूप में अस्वीकार किया है।
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