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संभव नहीं हो सकती है । पुनः इन दोनों को घटित होने के लिए कोई स्थायी तत्त्व चाहिए और वही ध्रौव्य है । द्रव्य की अवस्थाएं परिवर्तित होती रहती है । मूलद्रव्य ध्रुव ही रहता है। पूर्व अवस्था नष्ट होती है और उत्तर अवस्था उत्पन्न होती है। परन्तु मूलद्रव्य के मूल गुणों और स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आता है । अतः इस प्रकार परिवर्तनशील अवस्थाओं की अपेक्षा से सत् अनित्य है और अपने मूल स्वभाव की अपेक्षा से नित्य है। इस प्रकार यशोविजयजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में जैनदर्शन के द्वारा स्वीकृत परिणामीनित्यवाद की स्थापना की है।
3. द्रव्य - गुण - पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध
द्रव्य, गुण, पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर दार्शनिक जगत में सदैव ही मतभेद रहे हैं। वेदान्तदर्शन का झुकाव अभेदवाद की ओर रहा है। उनके अनुसार एकमात्र ब्रह्म ही सत् है । वह दिक्, देश, काल, गुण गति, आदि सर्व से परे है। ब्रह्म निर्गुण, निर्विशेष और भेदशून्य है। उसमें स्वजातीय, विजातीय और स्वगत किसी प्रकार का भेद नहीं है। दूसरी ओर वैशेषिक और नैयायिकों ने भेदभाव का समर्थन करते हुए द्रव्य से गुण को एकान्त भिन्न मानकर इन दोनों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने के लिए 'समवाय' नामक तृतीय पदार्थ को स्वीकार किया है ।
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यशोविजयजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में द्रव्य - गुण - पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध को कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न अर्थात् भिन्नाभिन्न माना है और स्याद्वाद के आलोक में इस भिन्नाभिन्न सम्बन्ध को अनेक युक्तियों से सिद्ध करके दर्शाया है। लक्षण, संज्ञा, संख्या, आधार - आधेय सम्बन्ध आदि की दृष्टि से द्रव्य-गुण- पर्याय परस्पर भिन्न है । किन्तु इन्हें सर्वथा अभिन्न मानने पर गुण - गुणीभाव का उच्छेद हो जायेगा ; अवयव–अवयवी के भिन्न होने पर दुगुणी गुरूता का दोष उत्पन्न हो जायेगा ; समवाय सम्बन्ध स्वीकार करने पर अनवस्था का दोष उत्पन्न होता है । द्रव्य को गुणों से समवाय के आधार पर जोड़ने के लिए किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार करना पड़ता है । द्रव्य से पर्याय को अभिन्न नहीं मानने पर पर्यायात्मक कार्य असत् हो जायेंगे। गुण द्रव्य का व्यावर्तक लक्षण होने से द्रव्य का स्वभाव है।
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